आखिर क्यों करे कोई खेती?
देश का अन्नदाता आज अपने पारंपरिक पेशे के भविष्य को लेकर सशंकित है. लागत अधिक और मुनाफा कम होने के कारण किसानों का खेती-बारी की ओर रु झान कम हुआ है. असल सच्चाई भी यही है कि देश में अब कोई कृषि कार्य नहीं करना चाहता. यह वही देश है जहां किसानों ने सामूहिक श्रम […]
देश का अन्नदाता आज अपने पारंपरिक पेशे के भविष्य को लेकर सशंकित है. लागत अधिक और मुनाफा कम होने के कारण किसानों का खेती-बारी की ओर रु झान कम हुआ है. असल सच्चाई भी यही है कि देश में अब कोई कृषि कार्य नहीं करना चाहता. यह वही देश है जहां किसानों ने सामूहिक श्रम से सत्तर के दशक में खाद्यान्न और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में क्र ांति लाकर देश को संपन्न और आत्मनिर्भर बना दिया था. उस समय हम विश्व के प्रेरणास्रोत बन गये थे. कृषि सुधारों और किसानों की मेहनत ने देश में उत्पादन की गंगा बहा दी थी.
लगभग 45 वर्ष पूर्व स्थिति ऐसी थी और आज रोजाना किसान आत्महत्या कर रहे हैं. मूल सवाल यह है कि आखिर खेती और किसानों की इस दयनीय और सोचनीय स्थिति का जिम्मेवार कौन है? क्या केवल प्राकृतिक कारक ही उत्तरदायी हैं या देश की मौजूदा राजनीति भी. यदि राजनीतिक दल किसानों की मौजूदा स्थिति को राजनीति की शक्ल ना देकर अपने पार्टी फंड का कुछ प्रतिशत भी किसानों को चिंताओं की गर्त से निकालने के लिए प्रयोग करते तो आज लोकतंत्र न सिर्फ अपने उद्देश्यों में सफल होता, बल्कि स्वयं पर गर्वित भी महसूस करता. लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक रुपी तालाब का पानी पीकर ही अपना प्यास बुझाया करती हैं.
शायद इसलिए उनके द्वारा लाभार्थियों को दी जाने वाली सहानुभूति और आर्थिक सहायता भी राजनीति से प्रेरित नजर आती है. सच तो यह है कि आज देश में किसी को किसानों की फिक्र ही नहीं है. जरूरत इस बात की है कि निराशा से ग्रस्त किसानों को आर्थिक और सामाजिक सहायता देकर उन्हें दुखों से मुक्त कराने की, ताकि खेतीबारी में उनका भरोसा बना रहे.
सुधीर कुमार, गोड्डा