आधार-नंबर जारी करने की परियोजना कानूनी तौर पर खुद ही निराधार है, तो भी लोगों के वोट डालने के बुनियादी हक पर चोट मारने की कोशिश के तहत कहा जा रहा है कि अपने मतदाता पहचान-पत्र को आधार-नंबर से जोड़िए.
अव्वल तो आरटीआइ की अर्जियों के जवाब ही बहुत कम मिलते हैं, लेकिन संयोग से जो कभी जवाब मिल जायें, तो फिर जनता-जनार्दन का दुखहरण बता कर पेश की गयी परियोजनाओं की पोल खुल जाती है. बीते दिनों एक अर्जी उस आधार-कार्ड के बारे में थी, जिसे जारी करने की जिम्मेवारी यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआइडीएआइ) ने संभाल रखा है. अर्जी में पूछा गया कि जिन लोगों के पास नाम और निवास-स्थान साबित करने के लिए पहले से एक भी वैध दस्तावेज नहीं है, वैसे कितने लोगों ने पहचान-पत्र के रूप में आधार-नंबर जारी करने के लिए पंजीकरण करवाया, और कितनों को आधार-नंबर जारी हुआ और अगर ऐसे लोगों में किसी का पंजीकरण रद्द हुआ हो, तो रद्द करने का कारण भी बतायें. जवाब में यूआइडीएआइ ने कहा कि ऐसे लोगों की संख्या का तो हमें पता नहीं. हां, इतना जरूर बताया जा सकता है कि इस श्रेणी के कुल 2 लाख 19 हजार लोगों को आधार-नंबर दिया गया है.
यह संख्या चौंकानेवाली है, क्योंकि बीते अप्रैल महीने तक कुल 83 करोड़ 50 हजार लोगों को आधार-नंबर जारी किया गया था. यानी 99.97 फीसदी आधार-नंबर उन लोगों को जारी हुए, जिनके पास नाम और निवास-स्थान साबित करने के लिए दो-दो पहचान-पत्र पहले से थे. इस मुकाबिल बिना पहचान-पत्र के आधार-नंबर पानेवाले लोगों की संख्या 0.03 प्रतिशत के बराबर भी नहीं. जब आधार-नंबर को दुखियारी जनता का दुखहरण ताबीज बना कर पेश किया गया, तो तर्क यही था कि ‘पहचान सत्यापित करने के लिए जरूरी कागजात का ना होना गरीब जनता के लिए अनुदान तथा अन्य लाभ को पाने में बड़ी बाधा है.’ बाधा दूर करने के लिए आधार-नंबर बांटने की परियोजना को शुरू हुए पांच साल बीते, लेकिन बाधा कमो-बेश जस की तस है.
देश में कितने व्यक्ति बिना पहचान-पत्र के हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है. अगर बिना पहचान-पत्र वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, तो फिर सवा अरब आबादी के बीच कमोबेश सवा दो लाख ऐसे लोगों को आधार-नंबर जारी करना ऊंट के मुंह में जीरा कहलायेगा. अगर ऐसे लोगों की संख्या कम है, तो फिर यूआइडीएआइ द्वारा यह दावा किस आधार पर किया गया कि पहचान-पत्र का ना होना अनुदान और अन्य लाभ लेने के मामले में गरीबों के लिए बहुत बड़ी बाधा है?
आधार-नंबर को लेकर पिछले पांच वर्षो में कई प्रश्न उठे हैं. एक बड़ा सवाल आधार-नंबर जारी करने की परियोजना का मनमानी होना था. लोगों की भलाई के लिए आधार-नंबर बांटनेवाली परियोजना खुद कानूनी तौर पर निराधार थी. परियोजना लागू होने के चार साल बाद 2013 में नेशनल आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया बिल संसद में पेश होकर स्थायी समिति के अवलोकन में आया. समिति ने कहा कि हम बिल को मौजूदा रूप में स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि इसके क्रियान्वयन को लेकर खुद सरकार के भीतर ही अंतर्विरोध है. समिति को आपत्ति थी कि आधार-नंबर जारी करने से जुड़ी परियोजना का लाभ और लागत संबंधी कोई आकलन नहीं हुआ है.
स्थायी समिति की टिप्पणी से प्रेरित होकर तत्कालीन योजना आयोग ने इस परियोजना के लाभ और लागत संबंधी आकलन का जिम्मा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनांस एंड पॉलिसी (एनआइएफपी) को सौंपा. संस्थान ने अध्ययन में कहा कि आधार-नंबर जारी करने पर अगले 10 वर्षो में सरकार को 1 लाख करोड़ रुपये की बचत होगी, लेकिन इस पर भी सवाल उठे. बाद में एनआइएफपी ने खुद ही माना कि आधार-नंबर के लाभ और लागत संबंधी कोई पक्का आकलन पेश कर पाना मुश्किल है, क्योंकि आधार-नंबर से हासिल लाभ अमूर्त किस्म के हैं और उन्हें संख्यात्मक मान में बदल पाना मुश्किल है.
विचित्र स्थिति है कि लागत और लाभ ठीक-ठीक पता नहीं है, तो भी बीते दिसंबर तक इस परियोजना पर तकरीबन 6,000 करोड़ रुपये स्वाहा हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि किसी हकदार व्यक्ति को सरकार सेवा और सामान प्रदान करने से मात्र इस आधार पर मना नहीं कर सकती कि उसके पास आधार-नंबर नहीं है, तो भी रसोई-गैस से लेकर बच्चों के स्कूली दाखिले तक में आधार-नंबर को जरूरी बनाया जा रहा है. हद तो यह है कि आधार-नंबर जारी करने की परियोजना कानूनी तौर पर खुद ही निराधार है, तो भी लोगों के वोट डालने के बुनियादी हक पर चोट मारने की कोशिश के तहत कहा जा रहा है कि अपने मतदाता पहचान-पत्र को आधार-नंबर से जोड़िए. एक ऐसी परियोजना, जो गरीबों को नाम-पहचान देने की आड़ लेकर शुरू की गयी थी, संसद और सुप्रीम कोर्ट को अंगूठा दिखाते चोर दरवाजे से लोगों की नागरिकता पर सेंधमारी करने लगी है.
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
chandanjnu1@gmail.com