दिल्ली सरकार को परेशान करता केंद्र
कौन जानता है कि कल हालात बदल जायें और यहां भारतीय जनता पार्टी का मुख्यमंत्री बन जाये और किसी दूसरी पार्टी का उपराज्यपाल! ऐसे में क्या भाजपा अपने साथ इस तरह का व्यवहार पसंद करेगी, जैसा कि वह अरविंद केजरीवाल के साथ कर रही है? भारत की राजधानी में सबसे अजीब नाटक चल रहा है. […]
कौन जानता है कि कल हालात बदल जायें और यहां भारतीय जनता पार्टी का मुख्यमंत्री बन जाये और किसी दूसरी पार्टी का उपराज्यपाल! ऐसे में क्या भाजपा अपने साथ इस तरह का व्यवहार पसंद करेगी, जैसा कि वह अरविंद केजरीवाल के साथ कर रही है?
भारत की राजधानी में सबसे अजीब नाटक चल रहा है. हाल के वर्षो में अभूतपूर्व बहुमत के साथ एक चुनी हुई सरकार को जान-बूझ कर नामित उपराज्यपाल के जरिये स्वार्थी केंद्र सरकार परेशान कर रही है. हालात अब उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच सत्ता संघर्ष से कहीं अधिक गंभीर हो गये हैं. यह केवल राजनीतिक तौर पर हावी होने का सवाल नहीं रह गया है, न ही यह राजनीतिक द्वेष का अस्थायी लक्षण है. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह सामान्य बात है. लेकिन यहां परिस्थितियां ऐसी बन गयी हैं, जो भारत के संघीय ढांचे के सफल संचालन के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रही हैं.
जरा तथ्यों पर गौर करें. पहला, यह सही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है. मेरी समझ से यही समस्या की सबसे बड़ी वजह है. ऐसे राज्य में, जहां की आबादी हंगरी, यूनान, भूटान और साइप्रस को मिलाने के बाद भी अधिक है, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री लोगों से किये गये वादे को पूरा नहीं कर रहा है. लोगों ने इसी वादे के आधार पर अरविंद केजरीवाल को चुना है.
अब तक के दिल्ली के सभी मुख्यमंत्री, चाहे वे भाजपा के रहे हों या फिर कांग्रेस के, सभी ने लोकतांत्रिक आधार पर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग की है. संभवत: भाजपा इस मसले पर काफी मुखर रही है और उसने आम चुनाव में अपने घोषणापत्र में इसे शामिल भी किया था.
इस बात को दरकिनार भी करे दें, तो केंद्र शासित प्रदेश में संविधान के तहत नामित उपराज्यपाल को क्या अधिकार दिये गये हैं? संविधान के अनुच्छेद 299एए की धारा-4 में कहा गया है कि उपराज्यपाल विधानसभा को मिले अधिकार के तहत मंत्रिमंडल की सलाह के आधार पर निर्णय लेंगे. अनुच्छेद 239एए के धारा 3(ए) में कहा गया है कि दिल्ली की विधानसभा को संविधान में वर्णित राज्य सूची के तहत कानून बनाने का अधिकार है, केवल जमीन, पुलिस और कानून-व्यवस्था को छोड़ कर. केंद्र शासित प्रदेश में इन्हीं तीन क्षेत्रों में अन्य राज्यों के राज्यपाल के मुकाबले उपराज्यपाल को अतिरिक्त अधिकार प्राप्त हैं.
इस स्पष्ट कानूनी पहलू के संदर्भ में उपराज्यपाल लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार के काम में सहयोग करें और लोगों के जनादेश को बाधित करने के लिए अपने विशेषाधिकार का प्रयोग न करें. निश्चित तौर पर यहीं मेरे अच्छे मित्र नजीब जंग ने गलती की है.
मुख्यमंत्री की पसंद के मुख्य सचिव के फैसले को दरकिनार करना या अन्य दिल्ली सरकार द्वारा प्रशासनिक नियुक्तियों को रद्द करना मेरे नजर में एक समान है और चुने हुए मुख्यमंत्री को बेकार साबित करने के बराबर है. कानूनी स्थिति कुछ भी हो, लेकिन असल मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच और राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संवाद को लेकर एक प्रक्रिया रही है. भले ही मुद्दों को लेकर दोनों के बीच असहमति रही हो, लेकिन इसके उदाहरण दिये जाते हैं. इसका मकसद यह है कि ऐसा संदेश कभी नहीं जाये कि राज्यपाल लोकतांत्रिक तौर पर चुने हुए मुख्यमंत्री को नीचा दिखाना चाहते हैं. इस व्यवहार की महत्ता तब भी बनी रहनी चाहिए, जब राज्यपाल किसी पार्टी द्वारा नामित किया गया हो या जो चुनी हुई पार्टी के विरोध वाला हो.
दिल्ली में जो हम देख देख रहें हैं, वह इससे बिल्कुल उलट है. लोगों में यह धारणा तेजी से बन रही है कि उपराज्यपाल जान-बूझ कर एक चुनी हुई सरकार के काम में बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं. कई मायनों में दिल्ली का यह घटनाक्रम अप्रत्याशित है.
पूर्व में दिल्ली में भाजपा के भी मुख्यमंत्री रहे हैं और उपराज्यपाल कांग्रेस द्वारा नामित किये गये और कांग्रेस मुख्यमंत्री रहते भाजपा द्वारा नामित उपराज्यपाल रहे. लेकिन पूर्व में ऐसा झगड़ा कभी नहीं हुआ. यह साफ जाहिर होता है कि केंद्र की वर्तमान भाजपा सरकार उपराज्यपाल के पद का प्रयोग अरविंद केजरीवाल के नेतृत्ववाली आम आदमी सरकार को परेशान करने के लिए कर रही है. अगर ऐसा नहीं है तो क्यों केंद्र सरकार ने सिर्फ अधिसूचना जारी कर संविधान के अनुच्छेद 368 को संशोधित कर दिया?
संविधान को संशोधित करने का अधिकार भारतीय संसद को है, जैसा कि जानेमाने वकील केटीएस तुलसी का कहना है. लेकिन 21 मई को अधिसूचना जारी कर केंद्र सरकार ने असंवैधानिक तरीके से उपराज्यपाल के कार्यक्षेत्र में सर्विसेज को भी शामिल कर दिया. केटीएस तुलसी की नजर में उपराज्यपाल को यह अधिकार दिये जाने का फैसला अलोकतांत्रिक और तानाशाही प्रवृति वाला है.
दिल्ली सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो में डेप्युटेशन पर बिहार के कुछ अधिकारियों की नियुक्ति का उपराज्यपाल द्वारा विरोध किया जाना भी समझ से बिल्कुल परे है. दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रलय के अधीन हो सकती है और नियमत: उपराज्यपाल के अधीन, लेकिन एंटी करप्शन ब्यूरो पूरी तरह से मुख्यमंत्री के अधीन है और मेरी समझ से हाल में हाइकोर्ट के हाल के एक फैसले से भी इसकी पुष्टि होती है. फिर क्यों उपराज्यपाल मुख्यमंत्री द्वारा भ्रष्टाचार को कम करने के लिए इस मजबूत करने के निर्णय को रोक रहे हैं?
मेरी समझ के अनुसार, केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक सरकार को दिल्ली की लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार को परेशान करने के लिए उपराज्यपाल का प्रयोग करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिए. कौन जानता है कि कल हालात बदल जायें और यहां भारतीय जनता पार्टी का मुख्यमंत्री बन जाये और किसी दूसरी पार्टी का उपराज्यपाल! ऐसे में क्या भाजपा अपने साथ इस तरह का व्यवहार पसंद करेगी, जैसा कि वह अरविंद केजरीवाल के साथ कर रही है?
बहरहाल, दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, उससे देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को सावधान हो जाना चाहिए. लोकतंत्र को राज्यपाल या उपराज्यपाल पद का दुरुपयोग कर बाधित करने की कोशिश का विरोध होना चाहिए. निश्चित तौर पर दिल्ली के लोग, जिन्होंने कुछ महीने पहले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत दिया था, वे अपनी कीमत पर ऐसे घिनौने खेल को कतई स्वीकार नहीं करेगे. संभवत: अब यह समय आ गया है कि माननीय राष्ट्रपति स्वयं इस मामले में उचित दखल दें.
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com