घट रही है थाली में दाल की मात्र
पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार शायद सभी सियासती पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में है. तभी तो इतने शोर के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लग रही है. इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है. बेमौसम […]
पंकज चतुर्वेदी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
शायद सभी सियासती पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में है. तभी तो इतने शोर के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लग रही है. इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है.
बेमौसम बारिश ने देशभर में खेती-किसानी का जो नुकसान किया है, उसका असर जल्द ही बाजार में दिखने लगा है.
हमारे यहां मांग की तुलना में दाल का उत्पादन कम होता है और इस बार की प्राकृतिक आपदा की चपेट में दाल की फसल को जबरदस्त नुकसान हुआ है. अनुमानत: पंद्रह प्रतिशत फसल नष्ट हो गयी है, जबकि गुणवत्ता कम होने की भी काफी संभावना है.
वह दिन अब हवा हो गये हैं, जब आम मेहनतकश लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्नेत दालें हुआ करती थीं. देश की आबादी बढ़ी, लोगों में पौष्टिक आहार की मांग भी बढ़ी, यदि कुछ नहीं बढ़ा तो दाल बुवाई का रकबा. परिणाम सामने हैं- मांग की तुलना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं. अरहर दाल में गत एक साल में प्रति किलो 26 रुपये का उछाल आया है.
भारत में दालों की सालाना खपत 220 से 230 लाख टन है, जबकि कृषि मंत्रलय कह चुका है कि इस बार दाल का उत्पादन 184.3 लाख टन रह सकता है, जो पिछले साल के उत्पादन 197.8 लाख टन से कम है. इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ोतरी होगी. सनद रहे कि गत 25 वर्षो से हम हर वर्ष दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लिए इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की कोई ठोस योजना नहीं बन पा रही है. भारत दुनिया में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, उत्पादक और आयातक देश है.
दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रतिशत हमारे यहां है, जबकि खपत 22 फीसदी. इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो गये हैं, जब आम-आदमी को ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ कह कर कम में ही गुजारा करने की सीख देता था.
दलहन फसलों की बुवाई के रकबे में बढ़ोतरी न होना चिंता की बात है. सन् 1965-66 में देश के 227.2 लाख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोयी जाती थी, सन् 2005-06 आते-आते यह घट कर 223.1 लाख हेक्टेयर रह गया. सन् 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ोतरी तो हुई और यह 22.64 फीसदी हो गया. लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांग से बहुत दूर रहे. हम गत् 25 वर्षो से लगातार विदेशों (म्यांमार, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंगवा रहे हैं.
पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, लेकिन आलू-प्याज के लिए कोहराम मचानेवाले राजनीतिक दल चुप्पी साधे रहे थे. पिछले साल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने नवंबर तक 18,000 टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लिए वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी. माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उगली. एक तरफ आयातित दाल बाजार में थी, सो किसानों को अपनी अपेक्षित कीमत नहीं मिली.
ऐसे में किसान के हाथ फिर निराशा लगी और अगली फसल में उसने दालों से एक बार फिर मुंह मोड़ लिया. इस बार तो संकट सामने दिख रहा है, बेहतर होगा कि सरकार अभी से दाल आयात करना शुरू कर दे. एक तो इस समय माल खरीदने पर कम दाम में मिलेगा, दूसरा बाजार में बाहर का माल आने से देश में इसकी आपूर्ति सामान्य रहेगी व इसके चलते इसके भाव भी नियंत्रण में रहेंगे.
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन् 2004 में इंटीग्रेटेड स्कीम फार आयल सीड, पल्सेज, आयल पाम एंड मेज (आइएसओपीओएम) नामक योजना शुरू की थी. इसके तहत दाल बोनेवाले किसानों को सब्सिडी के साथ-साथ कई सुविधाएं देने की बात कही गयी थी. 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परिणाम नहीं निकले. 1950-51 में हमारे देश में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 ग्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 ग्राम से भी कम हो गयी.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आइसीएआर) की मानें, तो हमारे देश में दलहनों के प्रामाणिक बीजों हर साल मांग 13 लाख क्विंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6.6 लाख क्विंटल. यह तथ्य बानगी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए कितनी गंभीर है.
यह दुख की बात है कि भारत, जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है. कमी हो तो बाहर से मंगवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है.
नेशनल सैंपल सर्वे के एक सर्वेक्षण के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्र में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है.
इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है. शायद सभी सियासती पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में है. तभी तो इतने शोर के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लग रही है. इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है.