आमतौर पर चीन से आनेवाली खबरें दो किस्म की होती हैं. पहली, चीनी सरकारी मीडिया द्वारा, जो वहां की उपलब्धियों का गुणगान करती हैं और दूसरी, पश्चिमी मीडिया द्वारा, जो मानवाधिकार हनन आदि के लिए चीन सरकार की आलोचना करती हैं.
ऐसे में चीनी से आ रही यह खबर, कि वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रमुख नेता और पार्टी पोलित ब्यूरो के पूर्व सदस्य बो शिलाई को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी पाये जाने के कारण ताउम्र कारावास की सजा सुनायी गयी है, थोड़ा संभल कर व्याख्या करने की मांग करती है.
चीनी मीडिया द्वारा बो शिलाई की सजा को भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में बड़ी जीत की तरह पेश किया जा रहा है. इसे कानून के समक्ष सबकी बराबरी का पुख्ता प्रमाण बताया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर चीन के ही हांगकांग का मीडिया इसे कम्युनिस्ट शासन की आंतरिक लड़ाई से जोड़ रहा है.
बो शिलाई को मिली सजा आम भारतीयों को एक नजीर की तरह लग सकती है, क्योंकि भारत में करोड़ों–अरबों के घोटालों में भी किसी बड़े नेता का बाल भी बांका होता नहीं देखा गया है.
ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि 20 करोड़ रुपये की रिश्वत सहित दूसरे आरोपों में बो शिलाई को सुनायी गयी ताउम्र कैद की सजा, भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत और चीन के रवैये में तुलना को जन्म दे. लेकिन, सवाल यह भी है कि क्या वाकई चीन भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रति उतना ही प्रतिबद्ध है, जितना कि बो शिलाई के मामले द्वारा प्रदर्शित किया जा है? इसका जवाब पिछले साल नोबेल पुरस्कार पानेवाले चीनी लेखक मो यान के उपन्यासों और कहानियों में मिलता है.
अपनी आत्मकथात्मक किताब ‘चेंज’ में मो यान ने चीनी कम्युनिस्ट शासन के भीतर गहरे तक व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया है. बो शिलाई को मिली सजा इसी भ्रष्टाचार को सामने लाने का काम कर रही है. मो यान के उपन्यासों और कहानियों को पढ़ते हुए एहसास होता है कि चीनी कम्युनिस्ट शासन में भ्रष्टाचार ने एक मान्य परिघटना का रूप ले लिया है.
ऐसे में बो शिलाई को मिली सजा को आप एक नजीर भले मान सकते हैं, लेकिन इसे इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता कि चीनी कम्युनिस्ट शासन भ्रष्टाचार से मुक्त है, या उसके खिलाफ युद्ध लड़नेवाला ईमानदार शासन है.