जब मुझे पटना में ज्ञान प्राप्त हुआ
।। संजय मिश्र ।। (पंचायतनामा) बुद्ध को भले ही ज्ञान गया में प्राप्त हुआ हो, पर मुझे पटना में मिला. चंद दिनों पहले. इसके बाद से मेरी धारणाएं बदल गयीं. अब मैं कचरा–पेटी में कचरा न फेंकनेवालों को महान और कभी–कभार ही कचरा उठाने वाले नगर निगम को उससे भी महान मानने लगा हूं. दरअसल, […]
।। संजय मिश्र ।।
(पंचायतनामा)
बुद्ध को भले ही ज्ञान गया में प्राप्त हुआ हो, पर मुझे पटना में मिला. चंद दिनों पहले. इसके बाद से मेरी धारणाएं बदल गयीं. अब मैं कचरा–पेटी में कचरा न फेंकनेवालों को महान और कभी–कभार ही कचरा उठाने वाले नगर निगम को उससे भी महान मानने लगा हूं.
दरअसल, मेरे ज्ञानचक्षु एक घटना या कहें दुर्घटना ने खोले. घटना से दो दिन पहले ही मैंने अनंत चतुर्दशी की कथा सुनी थी, उसी से यह प्रेरणा मिली कि जो ज्ञान मैंने पाया है, उसे आपको भी बड़ी श्रद्धा से बताऊं, वरना अगला जन्म कीड़े के रूप में होगा.
तो अगला जन्म सुधारने के लोभ में आपको यह कथा सुना रहा हूं.. मित्रो, भगवान विश्वकर्मा की कृपा से हर साल 17 सितंबर को मिलनेवाली छुट्टी मना कर 18 की सुबह–सुबह पटना पहुंचा. यहां एक अखबार की सुर्खी थी– हाइकोर्ट ने नगर निगम को गंदगी के लिए फटकार लगायी.
एक अन्य अखबार ने लिखा था– नगर निगम वाले नहीं सुधरेंगे. पढ़ कर मैंने भी मन ही मन नगर निगम वालों को गरियाया. दफ्तर पहुंचा, तो साथियों से कहा–नगर निगम के निकम्मेपन पर सीरीज में स्टोरी छापो. लेकिन अगले ही दिन मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ कि दिमाग में छायी अज्ञान की सारी धुंध छंट गयी. साथ ही नगर निगम की काहिली का मुरीद हो गया.
हुआ यूं कि मैं सुबह टहलने के लिए अपने साथियों के साथ गांधी मैदान की ओर निकला था. लेकिन इससे ठीक पहले सड़क पर, एक भड़की हुई गो–माता ने मुझे पीछे से जोरदार टक्कर मारी. भला हो नगर निगम का, जिसकी कृपा से सड़क के किनारे कचरे का ढेर पड़ा था. मैं उछल कर उसी ढेर पर गिरा.
सड़क पर गिरा होता, तो हड्डी–पसली एक हो जाती. अस्पताल के दर्शन होते ही, तीन–चार महीने बिस्तर पर बीतते. कचरे का ढेर मेरे लिए डनलप बन गया. थोड़ी–बहुत चोट लगी. टहलना छोड़ राम–राम करते सीधे गेस्ट हाउस लौटा. रास्ते में साथियों ने कहा, गाय खुली घूम रही थी, इसलिए नगर निगम पर मुकदमा करना चाहिए. मैं समझ गया कि ये नादान हैं.
निगमवाले जानते हैं कि सह–अस्तित्व का जमाना है. सड़क पर गाय–सांड़, कुत्ते व सुअरों का भी उतना ही हक है, जितना हम मनुष्यों का, इसलिए वे उनके खाने–पीने का सामान सड़क से नहीं उठाते. रही बात भड़कने की, तो जब सड़क पर इनसान भड़क सकते हैं, तो जानवरों को यह हक क्यों नहीं? और हम जैसे मनुष्यों की सेफ्टी के लिए ही तो निगमवालों ने कचरे का ढेर छोड़ा हुआ है. इसका एक और फायदा है.
जैसे किसी के घर का लैंडमार्क कुछ यूं हो सकता है– कचरे के ढेर के बायें से तीसरा मकान. अगर निगम हरकत में आ जाये, तो शहर के सारे लैंडमार्क खत्म हो जायेंगे और पता ढूंढ़नेवालों का तेल निकल जायेगा. अब मेरे दोस्तों की सुनिए. मैं उन्हें घटना की खबर देता हूं, तो हमदर्दी जताने की जगह वे हंसने लगते हैं और मुफ्त की सलाह देते हैं– ‘यार लाल टी–शर्ट पहन कर मत निकला करो.’