लेह में भी एक बिहार बसता है

मुकुल श्रीवास्तव प्राध्यापक एवं टिप्पणीकार लेह की किसी गली से गुजरते हुए आपके कानों में अगर ‘बगल वाली जान मारेली’ जैसा भोजपुरी गीत सुनायी पड़े, तो कौतूहल होना स्वाभाविक है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ अपने लेह प्रवास के दौरान. एक दुकान में चल रहे वार्तालाप ने मुङो अपनी ओर खींच लिया- ‘का चीज. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 17, 2015 5:21 AM
मुकुल श्रीवास्तव
प्राध्यापक एवं टिप्पणीकार
लेह की किसी गली से गुजरते हुए आपके कानों में अगर ‘बगल वाली जान मारेली’ जैसा भोजपुरी गीत सुनायी पड़े, तो कौतूहल होना स्वाभाविक है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ अपने लेह प्रवास के दौरान. एक दुकान में चल रहे वार्तालाप ने मुङो अपनी ओर खींच लिया- ‘का चीज.
का बीस रुपये. अरे अपच हो जाई.. यह लेह का स्कम्पारी इलाका है, जहां लेह में एक छोटा बिहार बसता है.’ मैं भी उस बातचीत में शामिल हो गया. और फिर जो तथ्य मेरे हाथ लगे, उससे पता पड़ा कि लेह क्यों बिहार से आनेवाले मजदूरों का स्वर्ग है.
लेह में कुशल मजदूरों की भारी कमी है. जिसकी पूर्ति नेपाली और बिहारी मजदूर करते हैं. पर इसमें बड़ा हिस्सा बिहारी मजदूरों का है. लेह में जहां कहीं भी निर्माण चल रहा हो, आप वहां आसानी से बिहारी मजदूरों को काम करते देख सकते हैं. उन मजदूरों में ज्यादा हिस्सा बेतिया जिले के मजदूरों का है.
बेतिया से यहां मजदूरी करने आये हीरा लाल शाह ने कुछ पैसे जोड़ कर वहीं एक मिठाई की दुकान खोल ली है, जिससे वे उस बिहारी स्वाद की भरपाई कर सकें, जिसका आनंद वो और उनके जैसे सैकड़ों बिहारी मजदूर नहीं ले पा रहे थे.
उनकी दूकान पर सुबह से लेकर शाम तक उन बिहारी मजदूरों का तांता लगा रहता है- लिट्टी, बाटी या पकौड़ी के लिए. वहीं एक दूसरे देवनाथ शाह बताते हैं कि यहां आने के लिए वे कई महीने पहले ही टिकट कटा लेते हैं. इससे दिल्ली से लेह का टिकट ढाई से तीन हजार रुपये में मिल जाता है. और फरवरी मार्च में मजदूर यहां आ जाते हैं. दो-चार दिन आराम करने के बाद यहां काम मिल ही जाता है.
छ महीने पैसा कमाने के बाद दशहरे के आसपास फिर अपने गांव फ्लाइट से लौट जाते हैं. देवनाथ शाह यह बताना नहीं भूलते कि दिल्ली से अपने गांव का सफर वो ट्रेन के एसी डिब्बे में ही करते हैं.
चूंकि सभी मजदूर एक दूसरे के रिफरेंस से ही लेह पहुंचते हैं, इसलिए सब एक ही जगह साथ रहना पसंद भी करते हैं. उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी दुकानें वहां खोल ली हैं. चाहे भोजपुरी गाने हों या फिल्में मोबाइल में डालनी हों, या फिर सब्जी बेचना हो, सब जगह बिहार से आये मजदूर नजर आते हैं.
मजेदार बात यह है कि दुकान साल में छह महीने ही खुलती है, ठंड के कारण ये सभी सर्दियों में अपने-अपने घर लौट जाते हैं. हालांकि वहां के स्थानीय दुकान मालिक को साल भर का किराया देना होता है. लेकिन यह नुकसान उन्हें मंजूर है, क्योंकि उत्तर प्रदेश या बिहार में जहां एक दिन की औसत दिहाड़ी लगभग साढ़े तीन सौ रुपये है, वहीं लेह में उतने ही काम के पांच सौ से छह सौ रुपये मिल जाते हैं.
स्थानीय ठेकेदार परवेज अहमद बताते हैं कि बिहारी मजदूर बहुत मेहनती और कुशल होते हैं. प्लास्टर और पुताई के काम में इनका कोई मुकाबला नहीं है. लेह के जिलाधिकारी सौगत बिस्वास ने बताया कि इस समय लेह में करीब दस हजार बिहारी मजदूर हैं और अपनी मेहनत से वे लेह के निवासियों का जीवन आसान बना रहे हैं.

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