झारखंड प्राकृतिक और खनिज संपदाओं से परिपूर्ण है. यहां के लोगों के विकास के लिए डेढ़ दशक पहले इसे बिहार से अलग किया गया. अलग राज्य के गठन के इतने लंबे समय के बाद भी आज यहां अफसरशाही, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, नक्सलवादी गतिविधियां व कुरसी की होड़ पहले की ही तरह बरकरार है. इसे देख कर बुद्धिजीवी यह कहने में भी नहीं हिचकते कि इससे तो अच्छा झारखंड अलग ही नहीं होता या फिर अंगरेजी हुकूमत ही अच्छी थी.
जमीन, जंगल, नदी-नाले वाले इस राज्य में 80 फीसदी किसान-मजदूर, 15 फीसदी धनी लोग और पांच फीसदी सेठ-साहूकार रहते हैं. इनके अलावा छोटी-मोटी कंपनियां अपना कारोबार करती हैं. आज बिहार से अलग होने के 15 साल बाद भी यहां के निवासी डरपोक, कायर, क्लीव, भयातुर आदि के रूप में जीवन जीने को मजबूर हैं.
इस समयांतराल में यहां के राजनेता मंत्री भी बने. इन लोगों ने एक तीर से दो निशाने साधे. खुद करोड़पति बन गये, लेकिन आम जनता की स्थिति जस के तस बनी हुई है. विकास के नाम पर काम नदारद है. यही वजह है कि चुनावों में मंत्रीगण हार गये. सूबे में गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी के बीच गंभीर और मौसमी बीमारियां, कुपोषण, नारी उत्पीड़न, बेरोजगारों का पलायन और आत्महत्या जैसी समस्याएं बरकरार हैं. आज प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर इन समस्याओं को दूर करने की जरूरत है. सरकार यहां के गरीबों को रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध करा रही है, लेकिन इस सुविधा ने लोगों के बीच अमीरी-गरीबी की खाई को बढ़ा दिया है. केंद्र व राज्य सरकार को बुनियादी सुविधाओं के प्रति ध्यान देना होगा.
भैया हॉसदाकू ‘चासा’, करहड़बिल, दुमका