चार्ल्स कोरिया की यादगार इमारतें
रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हम सब अपनी जिंदगी में किसी न किसी इमारत को देखने की हसरतें पालते हैं. किसी न किसी इमारत को देख कर आहें भरते हैं कि आखिर इसे बनानेवाले ने इसे कैसे बनाया होगा. कितना खुलापन है, हवा कहां-कहां से आती-जाती है और रोशनी कैसे इधर-उधर से छन कर आती है. […]
रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
हम सब अपनी जिंदगी में किसी न किसी इमारत को देखने की हसरतें पालते हैं. किसी न किसी इमारत को देख कर आहें भरते हैं कि आखिर इसे बनानेवाले ने इसे कैसे बनाया होगा. कितना खुलापन है, हवा कहां-कहां से आती-जाती है और रोशनी कैसे इधर-उधर से छन कर आती है.
आजाद भारत में ऐसे ही एक शाहकार हुए हैं ‘चार्ल्स कोरिया’. चार्ल्स ने आजाद भारत की इमारतों को अंगरेजों की बनायी इमारतों से मुक्त किया, मुगलकालीन भव्यता के असर से पीछा छुड़ाया और सार्वजनिक इमारतों को नयी सोच के साथ खड़ा कर दिया.
चार्ल्स कहा करते थे कि बाजार की शक्तियों के भरोसे शहर नहीं बसता है, बल्कि वे शहर को बेतरतीब बना देती हैं.
मुंबई के पास नवी मुंबई है, जिसकी रूपरेखा को बनाने का काम चार्ल्स को मिला था. उनकी डिजाइन की खूबी यह है कि वह अपनी भव्यता, शालीनता और खुलेपन में भारत के आधुनिक मिजाज को दर्शाती हैं. उनकी तमाम इमारतों को देखते हुए आपको प्राचीन, मुगलकालीन या अंगरेजों के दौर की बनी इमारतों के खुलेपन की याद आयेगी और आप समझेंगे कि इन्हें देखते वक्त किसी बादशाह का ख्याल नहीं आ रहा है.
चार्ल्स की बनायी इमारतों में आपको अपना चेहरा दिखेगा. उनकी इमारतें सरकार की तरह नहीं होती, बल्कि दोस्त की तरह लगती हैं. हमारे शहर की बसावट की इतनी दिक्कतें हैं कि तंग गलियों में सिकुड़ जाते हैं. शहर आपको धकियाने लगता है. सरकारी या प्राइवेट इमारतें छाती पर गिरते-पड़ते नजर आती हैं.
चार्ल्स कोरिया जैसे आर्किटेक्ट अपनी पूरी जिंदगी इन नजरियों को बदलने में लगे हैं. उनकी डिजाइन की हुईं इमारतें हमारी परंपरा और इतिहास बोध के करीब होते हुए भी भविष्य के भारत के आधुनिक स्वरूप की छवियां गढ़ती हैं.
साबरमती आश्रम का ‘गांधी स्मारक संग्रहालय’, 1982 में भोपाल का ‘भारत भवन’, 1996 में बनी ‘मध्य प्रदेश की विधानसभा’ भी चार्ल्स की कल्पना है. उन्होंने इसे वैदिक सिद्धांतों के आधार पर बनाया है. ‘दिल्ली की ब्रिटिश लाइब्रेरी’ की यह इमारत जमाने तक चर्चा में रही है. उसी से थोड़ी दूर पर ‘रीगल सिनेमा’ के पास बना एलआइसी भवन, दिल्ली का ही ‘आर्ट एंड क्राफ्ट म्यूजियम’ यह सब उन्हीं की देन है. इन सब इमारतों को कभी करीब से देखियेगा, तब आप समझ पायेंगे कि चार्ल्स ने भारत को क्या दिया है.
पुर्तगाल के जिस अस्पताल में ललित मोदी की पत्नी का ऑपरेशन हुआ, उसकी वास्तुकला बेजोड़ मानी जाती है. ‘चंपालीमॉड सेंटर फॉर दि अननोन’ चार्ल्स कोरिया की बेहतरीन कृति मानी जाती है.
हमने इतना सब कुछ इसलिए बताया कि अब चार्ल्स कोरिया हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनकी इमारतें हैं, जो आपको याद दिलायेंगी कि एक ऐसा शख्स था, जो आपके शहर को आपके लिए बनाना चाहता था. पूरी दुनिया में भवनों की डिजाइन करनेवाले, उससे ताल्लुक रखनेवाले लोगों के बीच चार्ल्स कोरिया का जाना एक ऐसा स्पेस बना गया है, जिसे वे कभी अपनी इमारतों के बीच बनाया करते थे. खाली-खाली सा, खुला-खुला सा.