भारत बढ़ता है, तो घटता कौन है?

राज्यसभा सांसद, भाजपा असंदिग्ध रूप से योग भारत के महान ऋषियों एवं हिंदू सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ उपहार है, लेकिन योग साधना किसी मुसलिम को बेहतर मुसलिम, किसी ईसाई को बेहतर ईसाई और सामान्य मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने की क्षमता रखता है. ऋषि पतंजलि ने योग सूत्र में योग की परिभाषा काया और मन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 19, 2015 5:39 AM
राज्यसभा सांसद, भाजपा
असंदिग्ध रूप से योग भारत के महान ऋषियों एवं हिंदू सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ उपहार है, लेकिन योग साधना किसी मुसलिम को बेहतर मुसलिम, किसी ईसाई को बेहतर ईसाई और सामान्य मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने की क्षमता रखता है.
ऋषि पतंजलि ने योग सूत्र में योग की परिभाषा काया और मन के एक ऐसे युग्म के रूप में दी है, जो मनुष्य को शरीर की अनुभूति से परे ब्रrा के साक्षात्कार तक ले जाता है. वस्तुत: जब मनुष्य का ब्रrा से मिलन होता है, तो वही योग की चरम स्थिति है. इसी स्थिति को परमहंस स्थिति कहा जाता है. स्वामी रामकृष्ण को इसीलिए परमहंस कहा गया था, क्योंकि निर्विकल्प समाधि के माध्यम से उन्होंने ईश्वरत्व की अनुभूति की थी, स्वयं ब्रrामय हो गये थे और शरीर तथा इहलोक की तमाम जकड़न से परे मुक्त संन्यासी के नाते सबके प्रति समदृष्टि रखनेवाले महापुरुष हो गये थे. इसीलिए उन्हें अवतारी पुरुष और भगवान का रूप भी माना जाता है. उनकी इसी शक्ति के कारण नरेंद्र नाथ दत्त का स्वामी विवेकानंद के रूप में अवतरण हुआ.
शारीरिक क्षमता बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति के लिए अनिवार्य है. ‘शरीर माध्यमेन खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात्, शरीर के माध्यम से ही धर्म की साधना अथवा व्यवहार संभव है. शरीर को इसीलिए रथ की संज्ञा दी गयी है. यदि शरीर समर्थ है, तो बुद्धि भी उचित मार्गदर्शन करती है. शरीर का कलुषमय, व्याधिमय, दुर्बल तथा तामसिक स्वभाव से ग्रस्त होने के कारण अपराध और नकारात्मक व्यवहार में वृद्धि होती है. स्वस्थ, सबल, सुपुष्ट एवं तेजोमय शरीर सात्विक गुणों की ओर प्रवृत्त करता है. यही कारण है कि सात्विक आहार और शक्तिशाली शरीर समाज के लिए गुण माने गये हैं. हमारे महापुरुषों ने सदैव आहार को बहुत महत्व दिया है. कहावत भी है कि यथा अन्न तथा मन यानी जैसा अन्न और आहार खायेंगे, हमारी बुद्धि भी वैसी ही बनेगी. मद्यपान तथा नशीले द्रव्यों के सेवन से केवल शरीर ही समाप्त नहीं होता, बल्कि जब तक शरीर में थोड़ा भी बल रहता है, तो खराब आहार से जन्मे दुगरुण उस शरीर के माध्यम से आपराधिक कृत्य ही करवाते हैं.
योग फैशन नहीं है, बल्कि जीवनपद्धति है. शरीर सबल रहे, लेकिन मन भी सात्वि रहे, यह संतुलन योग के माध्यम से ही आता है. आजकल योग की ख्याति को भुनाने का जो व्यावसायिक चलन बढ़ता दिखता है, वह योग विरोधी कृत्य है. हॉट योग, फास्ट योग, ट्रैक योग, बॉलीवुड योग, सैटेलाइट योग, पॉवर लव योग जैसे बेतुके और फूहड़ योग केंद्रों के नाम देख कर आक्रोश ही पैदा होता है. योग एक प्रकार की ऐसी विद्युत शक्ति है, जिसके माध्यम से हर अच्छे काम को और हर आस्था के प्रति अभिमान एवं समर्पण को और बेहतर किया जा सकता है.
असंदिग्ध रूप से योग भारत के महान ऋषियों एवं हिंदू सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ उपहार है, लेकिन योग साधना किसी मुसलिम को बेहतर मुसलिम, किसी ईसाई को बेहतर ईसाई और सामान्य मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने की क्षमता रखता है.
योग सांसों का खेल है. यह आशा और विश्वास का मेल है. यह धरती से ब्रrांड तक की दूरी मापने का आत्मिक साधन है. यह आत्म साक्षात्कार एवं अपने भीतर बसे परमात्मा से संवाद कराने का माध्यम है. यह इस बात का एहसास दिलाता है कि मनुष्य की शरीरिक क्षमताएं कितनी सीमित हैं और परमात्मा का रचना संसार कितना अनंत और अनादि है. महान वैज्ञानिक आइंसटीन ने कहा था कि वह जितना जानते हैं, उसको देख कर संसार चकित होता है, लेकिन सत्य है कि वह स्वयं को सागर के तट पर बिखरी अरबों सीपियों में से कुछ सीपियां ही ढूंढनेवाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं.
योग: कर्मसु कौशलम्. कार्य में कुशलता प्राप्त करने का नाम ही योग है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प्रो राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) कहते थे कि जो भी करो, बहुत अच्छी तरह से, पूर्ण मनोयोग से करो. यदि शौचालय भी साफ करना है, तो इतनी अच्छी तरह से साफ करो कि सब कहें-वाह! कितनी कुशलता से सफाई की है. पढ़ाई करो, तो उत्तम परिणाम लाओ. सेवा करो, तो पूरे समर्पण से. रक्षा करो, तो प्राणों की बाजी लगाने की भी तैयारी के साथ. पढ़ाओ, तो इस तरह कि अपना सर्वोत्तम ज्ञान-दान दे दो. यह योग है.
योग का अर्थ ही जुड़ना है. व्यक्ति का समाज से, समाज का राष्ट्र से और राष्ट्र का विश्व से. योग करेंगे, तो निश्चित रूप से, गारंटी के साथ, परस्पर ईष्र्या, द्वेष, घृणा में कमी आयेगी. शरीर की नश्वरता और ईश्वरीय सत्ता का अभ्यास होता है.
आज जब राजनीति का नाम ही धनलोलुपता, घृणा और असहिष्णुता हो गया है, तो क्या योग से होनेवाला लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं बन जाता? विद्यार्थी बेहतर विद्यार्थी बने और राजनेता बेहतर नेतृत्व दे, उसका तन और मन ज्यादा सबल, सुपुष्ट हो, तो इसमें नुकसान ही क्या है?
लेकिन, यह सब मन की बात है. मन आवे तो किया जाये, न आवे तो न करें. जो करे, उसकी अतिशय प्रशंसा की आवश्यकता नहीं, जो न करे, उसका मजाक उड़ाना स्वयं को छोटा करना होगा. हजारों वर्षो की साधना, अभ्यास और परंपरागत व्यवहार का नाम है योग. उसका यदि कोई एक ब्रांड है, यदि कोई एक पहचान है, यदि कोई एक परिचय है, तो वह है सर्वकल्याणकारी भारत. सिवाय भारत के उसकी कोई व्याख्या भी नहीं कर सकता.
दुनिया भर में यदि योग का प्रभाव बढ़ता दिखता है, तो उससे हर भारतीय का सम्मान और देश का गौरव बढ़ता है. कुछ देश अपार सैन्य शक्ति अथवा दानवी अर्थ-शक्ति के कारण प्रभाव पैदा करते हैं. यदि भारत योग-शक्ति के कारण पूरे विश्व में अपना अच्छा प्रभाव और मैत्री का वातावरण सृजित करता दिख रहा है, तो इससे हर उसको आनंद महसूस करना चाहिए, जो भारत से प्रेम करता है, भारत के प्रति श्रद्धा रखता है.
भारत बढ़ता है, तो घटता कौन है? भारत के ज्ञान-विज्ञान का दुनिया में मान बढ़ता है, तो दुख किसे होता है? योग के अभ्यास से, विशेषकर प्राणायाम और कुछ आसनों से भला तो उसी का होता है, जो उसे करता है. अपनी भलाई के लिए, अपने देश के गौरव के लिए क्या जरूरी है राजनीति को बीच में डाल स्वयं ही अपना नुकसान करना?

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