सुख-शांति हमारे ही अंदर है
कहते हैं कि गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन-धन खान/ जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान. तो फिर सबसे बड़ा धन क्या हुआ? ‘संतोष-धन’. दिन-रात हमारी दौड़ भौतिक पदार्थो को संग्रह करने में लगी है, जिसके पीछे एक ही मकसद है सुख-शांति की प्राप्ति. लेकिन बात विपरीत हो रही है, सुख-शांति के बजाय दु:ख […]
कहते हैं कि गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन-धन खान/ जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान. तो फिर सबसे बड़ा धन क्या हुआ? ‘संतोष-धन’. दिन-रात हमारी दौड़ भौतिक पदार्थो को संग्रह करने में लगी है, जिसके पीछे एक ही मकसद है सुख-शांति की प्राप्ति. लेकिन बात विपरीत हो रही है, सुख-शांति के बजाय दु:ख और अशांति मिलती है, मतलब कहीं न कहीं गड़बड़ है.
और वह गड़बड़ है हमारी सोच में, हमारे चिंतन में. संत-महात्माओं ने हमेशा से कहा है कि जिस सुख-शांति-संतुष्टि को तुम चाहते हो, वह तो सदैव तुम्हारे अंदर है, बस अंतमरुख होने की जरूरत है. ज्ञान द्वारा हमारा चिंतन, हमारी सोच अंतमरुखी हो सकती है. ज्ञान-चिंतन से वैराग्य, अपरिग्रह, ईश्वर के प्रति प्रेम व समर्पण का भाव जाग्रत होता है, जिससे सहज में संतोष धन की प्राप्ति होती है.
आरडी अग्रवाल, मुंबई