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पूर्व सैनिकों की सम्मान की लड़ाई

राजीव रंजन गिरि संपादक, अंतिम जन भूतपूर्व सैनिकों ने आंदोलन शुरू किया है. वे जंतर-मंतर पर क्रमिक भूख हड़ताल पर हैं. इन्होंने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी दिया है. ज्ञापन में एक रैंक-एक पेंशन की मांग की गयी है. खास बात यह है कि ज्ञापन पर हस्ताक्षर खून से किये गये हैं.संकेत है- जिन सैनिकों ने […]

राजीव रंजन गिरि
संपादक, अंतिम जन
भूतपूर्व सैनिकों ने आंदोलन शुरू किया है. वे जंतर-मंतर पर क्रमिक भूख हड़ताल पर हैं. इन्होंने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी दिया है. ज्ञापन में एक रैंक-एक पेंशन की मांग की गयी है. खास बात यह है कि ज्ञापन पर हस्ताक्षर खून से किये गये हैं.संकेत है- जिन सैनिकों ने मुल्क की हिफाजत के लिए अपने खून की परवाह नहीं की है, उन्हें अपनी मांग के लिए अपने देश में ही खून से हस्ताक्षर कर ज्ञापन देना पड़ रहा है. इससे उनकी बेबसी का अंदाजा लगाया जा सकता है.
यह पूर्व सैनिकों से जुड़ा एक आर्थिक मुद्दा है. इसकी मांग 1973 के बाद से होने लगी थी. इसकी पैदाइश का कारण बनी थी तीसरे वेतन आयोग की सिफारिश. इस सिफारिश के पहले सैनिकों और अन्य सेवाओं के कर्मियों के पेंशन में एकरूपता नहीं थी. सैनिकों के लिए भी दो तरह के पेंशन थे. अधिकारियों को अपने वेतन का पचास फीसदी और जवानों को पचहत्तर फीसदी मिलता था. बावजूद इसके तब एक रैंक-एक पेंशन का प्रावधान था, जिसकी मांग फिर से हो रही है.
पूर्व सैनिकों ने अपने पेंशन की इस मांग को अपने सम्मान का सवाल बनाया. जब कोई आर्थिक मुद्दा सम्मान का प्रश्न बन जाये, तब उसमें भावनात्मक छौंक लगना स्वाभाविक है. नतीजतन 8 फरवरी, 2009 को तकरीबन तीन सौ पूर्व सैनिकों ने राष्ट्रपति भवन मार्च कर अपने पराक्रम के सम्मान में मिले पदक वापस कर दिये.
पूर्व सैनिकों का एक रैंक-एक पेंशन के पक्ष में तर्क यह है कि सेना के दो-तिहाई से अधिक जवान चालीस की उम्र से पहले सेवानिवृत्त हो जाते हैं, ताकि सेना में युवावस्था वाले रह सकें. सैन्य अधिकारियों में भी आधे से अधिक इसी उम्र तक फौज में रह पाते हैं.
लिहाजा इनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा सेवानिवृत्ति में ही बीतता है. सरकार का तर्क है कि अगर फौज में इस प्रावधान को लागू किया गया, तो देर-सबेर अर्धसैनिक बल और अन्य सरकारी सेवा की तरफ से भी यह मांग होने लगेगी, जिसकी भरपाई संभव नहीं होगी. 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व सैनिकों के पक्ष का समर्थन करते हुए एक रैंक-एक पेंशन लागू करने की बात कही.
फरवरी 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इसे बिना किसी देरी के लागू करना चाहिए. तब आम चुनाव भी सिर पर था, इसलिए यह मसला तूल पकड़ता जा रहा था. लिहाजा आनन-फानन में तत्कालीन सरकार ने 500 करोड़ रुपये आवंटित कर दिये.
प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित होने के बाद नरेंद्र मोदी ने हरियाणा में एक जनसभा में वन रैंक-वन पेंशन का समर्थन किया. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ‘मन की बात’ में भी इस मुद्दे पर अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी. उनके प्रतिबद्धत्ता दोहराने पर भी पूर्व सैनिकों को भरोसा नहीं हो रहा और वे यह कह रहे हैं कि नौकरशाही इसे लागू नहीं होने देगी. इसलिए सरकार समय सीमा बताये कि कब तक लागू करेगी.
क्या पूर्व सैनिक भाजपा के घोषणापत्र और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता से ज्यादा प्रभावशाली नौकरशाही को समझ रहे हैं? चुने हुए प्रतिनिधि और प्रधानमंत्री से ज्यादा असरकारक नौकरशाही को समाज के किसी भी तबके द्वारा समझा जाना लोकतंत्र के प्रति अच्छा संकेत नहीं देता.

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