मेरे घर-परिवार में योग
एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा क्या कांग्रेस 19वीं सदी की तरह अंगरेजीयत का शिकार हो गयी है जो ‘देसी’ ज्ञान को प्रतिगामी मानती है? या कांग्रेस एक बार फिर अल्पसंख्यकों में मौजूद अतिवादियों को तुष्ट कर रही है जिन्हें अपने समुदाय से कहीं अधिक समर्थन मीडिया से मिलता है? मेरे ससुर जोसेफ जॉन भले आदमी थे […]
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
क्या कांग्रेस 19वीं सदी की तरह अंगरेजीयत का शिकार हो गयी है जो ‘देसी’ ज्ञान को प्रतिगामी मानती है? या कांग्रेस एक बार फिर अल्पसंख्यकों में मौजूद अतिवादियों को तुष्ट कर रही है जिन्हें अपने समुदाय से कहीं अधिक समर्थन मीडिया से मिलता है?
मेरे ससुर जोसेफ जॉन भले आदमी थे जिनकी मुस्कान से उनकी नरमदिली झलकती थी. वे सीरियाई ईसाई चर्च के एक बड़े पादरी की संतान थे. दो बातों में उनकी बहुत दिलचस्पी थी जिनमें एक पर्यावरण था. उन्होंने मुंबई में फ्रेंड्स ऑफ ट्रीज (वृक्ष मित्र) नामक संस्था बनायी थी.
यह पहल उन्होंने तब की थी जब पेड़ों को काटना भवन बनानेवालों और नगरपालिका की आदत-सी बन गयी थी. देश की पारिस्थितिकी में उनका महत्वपूर्ण योगदान केरल की साइलेंट वैली को अतिक्र मण और तबाही से बचाना था. यह काम वे अपनी सेवानिवृत्ति के दौरान कोट्टयम के अपने पैतृक गांव मेंरह कर करते रहे थे. अगर ये जंगल आज भी आबाद हैं, तो उसका कुछ श्रेय जोसेफ जॉन को भी जाता है.
उनका दूसरा बड़ा लगाव योग से था. हर सुबह, बिला नागा, वे सूर्य नमस्कार करते थे, और उम्र के साथ शारीरिक दुर्बलता आने के बावजूद उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा बना रहा था. उस समय योग साधुओं और योगियों वगैरह तक सीमित था, और आज की तरह इसकी कोई अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति नहीं थी. लेकिन बाबू, हम प्यार से उन्हें इसी संज्ञा से संबोधित करते थे, को कभी ऐसा नहीं लगा कि योग किसी तरह से ईसाईयत में उनके यकीन में किसी तरह की दखल दे रहा है.
मेरी पत्नी भी योग करती रही हैं, और इससे उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छी स्थिति में है. कुछ सप्ताह पूर्व मैं अपनी युवा भतीजी से मिलने गया था, जो मेरी तरह ही एक मुसलिम है. वह बहुत जल्दी योग प्रशिक्षक बनने जा रही है. किसी को भी एक प्राचीन भारतीय ज्ञान और अपने पसंदीदा धार्मिक विश्वास में कोई टकराव नजर नहीं आता है. जोक उन्हें उच्चारित करने की इच्छा नहीं होती, वे उसे नहीं पढ़ते. योग को स्वास्थ्य और शांति का एक शानदार तरीका मानते हैं.
इसीलिए, योग दिवस के अवसर पर भारतीय मेधा के वैश्विक उत्सव के बहिष्कार का कांग्रेस का निर्णय कम-से-कम अबूझ तो है ही. क्या राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 19वीं सदी की तरह अंगरेजीयत का शिकार हो गयी है जो ‘देसी’ ज्ञान को प्रतिगामी मानती है? या कांग्रेस एक बार फिर अल्पसंख्यकों में मौजूद अतिवादियों को तुष्ट कर रही है जिन्हें अपने समुदाय से कहीं अधिक समर्थन मीडिया से मिलता है जो उत्तेजक बयानों की फिराक में लगे रहते हैं?
योग दिवस को लेकर साम्यवादियों का रवैया भी इसी तरह का है, लेकिन वे तो हर उस बात को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं जिसका उल्लेख करना कार्ल मार्क्स भूल गये हैं. हालांकि कोई भारतीय माओत्से तुंग मार्क्सवादी विचारों को भारतीय संस्कृति के साथ जोड़ने की जरूरत समझ सकता था.
हर हाल में सियासी दलों में जनमत पर तीक्ष्ण दृष्टि रखने की समझ होनी चाहिए. चारों तरफ भारतीयों ने पूरे उत्साह के साथ योग दिवस का समर्थन किया है. ममता बनर्जी इस उत्सव में शामिल हो रही हैं जिन्हें पिछले पांच दशकों में कांग्रेस को मिले मुसलिम मतों से कहीं अधिक मुसलिम मत मिलते हैं.
मायावती, जिन्हें सीटें जीतने के लिए मुसलिम वोटों की जरूरत है, ने इस आयोजन का स्वागत किया है, हालांकि साथ में उन्होंने भाजपा पर तीखा बयान भी दिया है. केरल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ऊमेन चांडी चतुर राजनेता हैं जो जनमत को संतुष्ट और अपने नेता राहुल गांधी को तुष्ट करना चाहते हैं.
उनका राज्य भी इस उत्सव में शामिल है, पर उन्होंने एक दिन की छुट्टी ले ली है. मुलायम सिंह की पार्टी के नेता आजम खान, जो अपमानजनक बयानों के लिए कुख्यात हैं, ने अपना रुख नरम किया है. अगर मुसलिम ‘ओम’ का उच्चारण न करें, तो देवबंद के विद्वानों को भी योग में कुछ गलत नहीं दिखता.
यह मुद्दा धार्मिक नहीं, बल्कि परस्पर घुलने-मिलने का है, जो भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति की अभिन्न प्रवृत्ति है. हम एक साथ एक ही भूमि के अलग-अलग बागीचों से उपजे फूलों का भारतीय गुलदस्ता बनाते हैं. यह रचनात्मक सद्भाव दर्शन, कविता, कला, मनोभावों, फैशन, भोजन आदि में परिलिक्षत होता है. इसमें कुछ नया नहीं है.
दिल्ली सल्तनत के मुसलिम शासक गंगा के पानी में नहाते थे, जिसे बैलगाड़ियों से ढोया जाता था. इससे वे अधार्मिक या गैर-मुसलिम नहीं हो गये थे. हिंदू अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती जैसे सूफियों की मजारों पर सिर झुकाते हैं, इससे वे गैर-हिंदू नहीं हो जाते हैं. भारत का उद्भव एक रचनात्मक अचंभा है जिसकी जड़ें लोगों के दिलों में बसी हैं.
भारतीय एक चीज खारिज करते हैं, और ऐसा वे हजारों सालों के लिखित इतिहास में हमेशा से करते आये हैं. वह है- संकीर्ण मानसिकता. ऐसे भी अवसर आये हैं, जब संकीर्ण मानसिकता को जीत मिली है, खासकर हमारे सामाजिक व्यवहार में, लेकिन इसमें सुधार की आंतरिक प्रक्रि या भी रही है जिसका नेतृत्व उन विद्वानों के हाथ में था जिनका सर ऊंचा और मस्तिष्क स्वतंत्र हुआ करते थे.