लेखन और साहित्य का ‘साम्राज्य’??
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार जिस तर्क पर लेखन और साहित्य के साम्राज्य की बात की जायेगी, उसी तर्क पर लेखक, साहित्यकार साम्राज्यवादी हो जायेगा. इसलिए लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर बात करनेवालों को शब्दों के सही, सटीक, समुचित प्रयोगों पर ध्यान देना चाहिए. क्या यह मात्र संयोग है कि जिस तिथि (18 जून, 2015) को […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
जिस तर्क पर लेखन और साहित्य के साम्राज्य की बात की जायेगी, उसी तर्क पर लेखक, साहित्यकार साम्राज्यवादी हो जायेगा. इसलिए लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर बात करनेवालों को शब्दों के सही, सटीक, समुचित प्रयोगों पर ध्यान देना चाहिए.
क्या यह मात्र संयोग है कि जिस तिथि (18 जून, 2015) को लालकृष्ण आडवाणी का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ, उसी तिथि को हिंदी के कुछ कवि, गीतकार, संपादक, प्रोफेसर और आलोचक एक साथ बैठक कर एक विचार-गोष्ठी में ‘लेखन का साम्राज्य’ पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे.
आडवाणी ने अपने इंटरव्यू में यह चिंता व्यक्त की थी कि नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित और नष्ट किये जाने की संभावनाएं हैं. लोकतंत्र को कमजोर करने, उसे दबानेवाली शक्तियां हमारे समय में सक्रिय हैं. आपातकाल की वापसी आडवाणी को ही नहीं, सोमनाथ बनर्जी को भी संभव लगती है. आज अलोकतांत्रिक ताकतें सक्रिय ही नहीं मजबूत भी हैं.
‘वन मैन शो’ से तानाशाही आती है. जहां तक मीडिया का प्रश्न है, वह सत्ता पक्ष से लाभ लेने और उसे प्रसन्न करने में लगा है. समाजवादी जनतंत्र की ताकतें आज कहीं अधिक कमजोर है. सत्ता खौफ और भय पैदा करती है. इंदिरा गांधी ने सत्ता में बने रहने के लिए आपातकाल लागू किया था और उस समय संसद में एक सांसद ने भी इसका विरोध नहीं किया था. इंदिरा से सभी भयभीत थे, आतंकित थे. एक लाख दस हजार लोग आपातकाल में जेल में डाल दिये गये थे.
साहित्य की भूमिका प्रतिपक्षी, विरोधी है. साहित्य हमें निर्भीक बनाता है. सत्य और न्याय के पथ पर चलने को प्रेरित करता है. क्या सचमुच लेखन और साहित्य का कोई ‘साम्राज्य’ होता है?
यह कथन, कि लेखन का साम्राज्य है, साहित्य का साम्राज्य है, लेखन की सारी विधाओं का साम्राज्य है और लेखक अपनी रचनाओं का साम्राज्य बनाता है, साहित्य विरोधी है. लेखन और साहित्य का कोई साम्राज्य नहीं होता. वह साम्राज्य के खिलाफ होता है. ‘साम्राज्य’ राजनीतिक अर्थशास्त्र का बहुप्रचलित पारिभाषिक शब्द है, जिसका एक सुनिश्चित अर्थ है.
मनमाने ढंग से इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता. हिंदी के किसी भी शब्दकोष में ‘साम्राज्य’ और अंगरेजी के किसी भी शब्दकोश में ‘एम्पायर’ का वह अर्थ नहीं है, जिससे हम यह कहने की स्थिति में हों कि लेखन और साहित्य का एक साम्राज्य होता है. नामवर ने अभी अपने एक इंटरव्यू में आज के लेखकों को ‘अपने समाज के प्रति बहुत सजग और चौकन्ने’ कहा है. सजग, चौकन्ना, प्रगतिशील और विद्रोही स्वरोंवाला लेखक कभी लेखन के साम्राज्य की बात नहीं करेगा. साहित्य में बड़े से बड़े आलोचकों, कवियों, लेखकों का भी कोई साम्राज्य नहीं होता.
‘साम्राज्य’ और ‘साम्राज्यवाद’ नकारात्मक और घृणित शब्द हैं. एक नवोदित राज्य में लेखन के साम्राज्य पर आयोजित विचार-गोष्ठी हमें यह सोचने पर विवश करती है कि शब्दों के प्रयोग में हम क्यों सजग, सावधान नहीं हैं? साम्राज्य का अर्थ सार्वभौम सत्ता, पूर्ण प्रभुता और आधिपत्य है.
प्रभात पटनायक ने ‘प्रभुत्व’ को ‘साम्राज्यवाद’ का निहितार्थ कहा है. आधुनिक हिंदी साहित्य साम्राज्य विरोधी होने के कारण ही प्रगतिशील और लोकमंगलकारी है. लेखन के साम्राज्य की बात करना असल में साम्राज्य के पक्ष में खड़ा होना है, उसकी वकालत करना है. शायद ही किसी समझदार व्यक्ति ने कभी लेखन के साम्राज्य की बात ही हो.
‘साम्राज्य’ का अपना एक इतिहास है. जिस प्रकार गांधी का विचार-दर्शन गांधीवाद है, मार्क्स का मार्क्सवाद, आंबेडकर का आंबेडकरवाद, उपनिवेश का उपनिवेशवाद, उसी प्रकार ‘साम्राज्य’ से जुड़ा विचार अथवा शासन साम्राज्यवाद है. लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर विचार करनेवाले हिंदी साहित्य, भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य के साम्राज्य विरोधी पक्ष से कम अवगत हैं.
साहित्य का संसार होता है, न कि साम्राज्य. लेखन और साहित्य के संसार पर विचार किया जाना चाहिए. जो लेखक अकेले या समूह में लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर ‘विचार’ करता है, उसकी अनदेखी इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि हमारे समय में बदले रूपों में साम्राज्यवादी शक्तियां कहीं अधिक सक्रिय हैं. उनकी सक्रियता कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों में कम नहीं है.
मार्केट कैपिटल की एक ‘खूबी’ यह है कि वह शब्दों से उसके वास्तविक अर्थ को भी अलग कर देता है. साम्राज्य से उसके वास्तविक अर्थ को अलग करने के बाद ही हम इस नकारात्मक शब्द का सकारात्मक रूप में प्रयोग कर रहे हैं. शब्द-विशेष के सम्यक ज्ञान और उसके समुचित, सार्थक प्रयोग को भारतीय वामय में सर्वाधिक महत्व प्राप्त है- ‘एक: शब्द: सम्यग ज्ञात: सु प्रयुक्त: स्वर्गे लोके च कामधुग् भवति.’
भूमंडलीकरण की नयी विश्व-व्यवस्था के दौर में लेखन और साहित्य के साम्राज्य की बात करना आपत्तिजनक है. यह लेखन की समस्त प्रगतिशील परंपरा, उपनिवेशवाद विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी परंपरा का विरोध है. यह संघर्ष और प्रतिरोध के लेखन और साहित्य के विरुद्ध है.
एक राजनीतिज्ञ और लेखक में अंतर है. राजनीतिज्ञ शब्दों के प्रयोग में न केवल असावधान होते हैं, वे अर्थ को विकृत भी करते हैं. जिसे आज ‘विकास’ कहा जाता है, वह विनाश है. विनाश को विकास कहना एक प्रकार की जादूगरी है. लेखक ऐसा जादूगर नहीं होता. वह शब्दों के वास्तविक अर्थ को विकृत, भ्रष्ट करनेवालों के खिलाफ होता है, न कि स्वयं उसी जमात में शामिल. शब्दों के वास्तविक अर्थ की रक्षा का सबसे बड़ा दायित्व लेखकों का है.
शब्द ही उसके हथियार हैं.’ भोथरे हथियारों से कुछ भी नहीं होता. नया साम्राज्यवाद ज्यादा चालाक और धूर्त है. बहुत पहले मार्क्सवादी हैरी मैगडॉफ ने ‘उपनिवेश रहित साम्राज्यवाद’ की बात कही थी.
जिस तर्क पर लेखन और साहित्य के साम्राज्य की बात की जायेगी, उसी तर्क पर लेखक और साहित्यकार साम्राज्यवादी हो जायेगा. साम्राज्यवादी अर्थात् साम्राज्यवाद के सिद्धांतों का अनुयायी तथा समर्थक. हिंदी प्रदेश से ऐसी आवाजें क्यों उठ रही हैं, लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर जो चर्चा हो रही है उसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते. हिंदी साहित्य सत्ता विरोधी, साम्राज्य विरोधी है.
लेखन और साहित्य की महती, प्रगतिशील, क्रांतिकारी भूमिका से अलग होकर ऐसी विचार-चर्चाएं संभव है. लेखन और साहित्य के साम्राज्य पर बात करनेवालों को शब्दों के सही, सटीक, समुचित प्रयोगों पर ध्यान देना चाहिए, जिससे अर्थ का अनर्थ न हो जाये.