अगर जीव-प्रजातियों के समाप्त होने की यही रफ्तार बनी रही, तो दो पीढ़ियों के भीतर 75 फीसदी जीव-प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी और अगर मनुष्य ने अपनी जीवनशैली ऐसी ही बनाये रखी तो सवा दो सौ वर्षो के भीतर धरती महाविनाश के गाल में समा जायेगी.
ज्यादा दिन नहीं हुए जब खबरों में गौरैया के शोकगीत गाये जा रहे थे. घर-आंगन में फुदकने, बारिश की बूंदों से पंख भिगो कर आषाढ़ के आगमन का उत्सव मनाने और सूखने के लिए पसरे चावल-गेहूं के दानों पर अपनी नन्ही चोंच मारनेवाली फुर्तीली गौरैया! यह चिड़िया बच्चों के मन में मोद भरती थी, बुजुर्गो की कहानियों का हिस्सा बनती थी.
गौरैया अब घर-आंगन में क्यों नहीं दिखती- यह बेचैन कर देनेवाला सवाल था, लेकिन हमने इस सवाल से आंख चुरा लिया. कुछ रिपोर्टो ने बताया कि हो सकता है गौरैया के विदा होने के पीछे मोबाइल तरंगों का हाथ हो, मोबाइल सेट्स में जो तरंगें गीत-संगीत-संदेश के रूप में अवतरित होती हैं, शायद वे ही गौरैया के उड़न-पथ पर उसके अस्तित्व के लिए अवरोध बन कर अड़ी हों.
गौरैया मरती रही, यहां तक कि आंखों से ओझल हो गयी, लेकिन मोबाइल सेट्स बढ़ते गये. आज हम अपनी रोजमर्रा की दुनिया की कल्पना मोबाइल सेट्स के बिना नहीं कर सकते! हममें से शायद ही कोई सोचता हो कि इस देश में कभी घर-आंगन की कल्पना गौरैया के बगैर पूरी नहीं होती थी! गौरैया के ना रहने पर हमें सोचना चाहिए था कि कहीं हम एक पूरी जीवनशैली के नाश के भागी व साक्षी तो नहीं बन रहे! लेकिन हमने नहीं सोचा, क्योंकि मोबाइल सेट्स से एक नयी जीवनशैली की राह खुल रही थी.
मोबाइस सेट्स हमारी राष्ट्रीय कल्पना के भीतर भारत की आर्थिक शक्ति की बढ़त का प्रतीक था और आगे उस समय तक बना रहेगा, जब तक कि हम इस (अंध)विश्वास से उबर नहीं जाते कि अपार और अबाध प्रकृति को विज्ञान के बंधनों में बांध कर मनुष्य के विकास की अनंत महाकथा लिखी जा सकती है!
धरती मां समान है. ममतामयी धरती संकेत देती रहती है- नाश के संकेत, नव-निर्माण के संकेत. धरती का प्राकृतिक जीवन एक दफे फिर से महाविनाश के संकेत देने लगा है. ‘साइंस एडवांसेज’ नामक जर्नल में प्रकाशित उच्चस्तरीय शोध में कहा गया है कि विविध जीव-प्रजातियों के लुप्त होने की रफ्तार हैरतअंगेज तौर पर सामान्य से 100 गुना ज्यादा बढ़ गयी है.
करीब साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले इस धरती से डायनासोर खत्म हुए थे और पूरी धरती को एक भयावह शीतयुग ने घेर लिया था. वैज्ञानिक बताते हैं कि डायनासोर युग से पहले भी कुल चार दफे धरती से जीवन का समूल नाश हुआ और अब हमारी धरती ‘छठे महाविनाश’ की ओर तेजी से बढ़ रही है. शोध के तथ्य बताते हैं कि पिछले सौ साल में धरती से कुल 477 केशरुकी (रीढ़धारी) प्राणी हमेशा के लिए समाप्त हो गये और यह सब हुआ है मनुष्य की आधुनिक जीवनशैली के कारण.
अगर मनुष्य अपने आधुनिक रूप में नहीं रहता, तो अस्तित्व के नाश की अपनी स्वाभाविक गति के हिसाब से सन् 1900 से अब तक महज 9 प्रकार के कशेरुकी प्राणी ही नाश को प्राप्त हुए रहते, 477 किस्म के रीढ़धारी प्राणियों को समाप्त होने में करीब 10,000 वर्ष का समय लगता. शोध लेख में स्पष्ट कहा गया है कि जिस गति से धरती से जीव-प्रजातियों का नाश हो रहा है, वह जैव-विविधता में आ रहे भयावह संकट का पता देता है.
अगर जीव-प्रजातियों के समाप्त होने की यही रफ्तार बनी रही, तो महज दो पीढ़ियों के भीतर धरती से 75 फीसदी जीव-प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी और अगर मनुष्य ने अपनी जीवनशैली आज जैसी ही बनाये रखी तो फिर दो सौ से सवा दो सौ वर्षो के भीतर धरती महाविनाश के गाल में समा जायेगी.
पिछले साल भी इसी तरह का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था. तब कहा गया था कि बीते 35 सालों में धरती पर मनुष्य की आबादी दो गुनी हो गयी है, लेकिन इसी अवधि में वैश्विक पर्यावरणीय बदलावों के कारण तितली, मकड़ी, मक्खी जैसे अकेशरुकी प्राणियों की संख्या में 45 प्रतिशत की कमी आयी है.
वैज्ञानिकों को हैरत इस बात की थी कि कशेरुकी प्राणियों की संख्या भी धरती पर तकरीबन इसी रफ्तार से घट रही है, जबकि कशेरुकी प्राणी विपरीत परिस्थितियों में जीवन जी पाने में तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा सक्षम होते हैं. पिछले साल के अध्ययन ने स्पष्ट किया कि योग्यतम की उत्तरजीविता, अनुकूलन और प्राकृतिक चयन का जैवशास्त्रीय सिद्धांत जितना 19वीं सदी की संध्यावेला में सच नजर आता था, उतना 21 सदी की विहान-वेला में नहीं
निकट भविष्य में धरती के महाविनाश की चेतावनी देनेवाले, हमारी मौजूदा जीवनशैली पर अंगुली उठानेवाले शोध आगे भी आयेंगे और ये शोध हमसे सवाल पूछेंगे कि क्या हम अधिकतम लोगों के अधिकतम भौतिक सुख के राजनीतिक दर्शन को छोड़ कर मानुष और धरती के शेष जीवन के बीच सहकार स्थापित कर सकनेवाला कोई वैकल्पिक जीवन-दर्शन अपनाने के लिए तैयार हैं? इस तैयारी में ही जीवन है, इस तैयारी में ही मनुष्यता का भविष्य है.