पूर्वोत्तर के दरवाजे खोलने की कोशिश

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार भारत और चीन के बीच दक्षिण रेशम मार्ग भी था. म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते भारत को चीन से जोड़ने की पहल चीन ने की है. चीन के राष्ट्रपति ने दक्षिणी रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखायी, जिसे बीसीआइएम कॉरिडोर कहा जाता है. चीन ने नाथूला होकर कैलाश […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 24, 2015 5:42 AM
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
भारत और चीन के बीच दक्षिण रेशम मार्ग भी था. म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते भारत को चीन से जोड़ने की पहल चीन ने की है. चीन के राष्ट्रपति ने दक्षिणी रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखायी, जिसे बीसीआइएम कॉरिडोर कहा जाता है.
चीन ने नाथूला होकर कैलाश मानसरोवर तक जाने का दूसरा रास्ता बीते सोमवार को खोल दिया. भारत के साथ विश्वास बहाली के उपायों के तहत चीन ने यह रास्ता खोला है. इस रास्ते से भारतीय तीर्थ यात्रियों को कैलाश मानसरोवर तक पहुंचने में आसानी होगी.
धार्मिक पर्यटन के अलावा यहां आधुनिक पर्यटन की भी अपार संभावनाएं हैं, पर सिद्धांतत: यह पर्यटन नहीं, बल्कि आर्थिक विकास के नये रास्तों को खोलने की कोशिश है.
चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से शुरू करने के अपने प्रयासों के तहत पिछले हफ्ते कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाइस्पीड रेल लाइन बिछाने की इच्छा जतायी है. कुनमिंग में ग्रेटर मीकांग सब-रीजन (जीएमएस) सम्मेलन में इस पर चर्चा हुई, जिसमें बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआइएम) मल्टी-मॉडल गलियारे को प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया.
इस हाइस्पीड गलियारे से म्यांमार व बांग्लादेश की अर्थव्यवस्थाओं को भी मदद मिलेगी. कुनमिंग में लगे दक्षिण एशिया व्यापार मेले के उद्घाटन के लिए भारत के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह वहां गये थे. क्षेत्रीय एकीकरण (रीजनल इंटीग्रेशन) की बातें फिर से होने लगी हैं.
पचास के दशक से प्रस्तावित एशियन हाइवे और ट्रांस एशियन रेलवे जैसी परियोजनाएं चर्चा में आ रहीं हैं, जिन्हें सफल बनाने की कोशिश संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां करती रही हैं. चीन जिस 2,800 किमी रेल मार्ग की पेशकश कर रहा है, उससे 132 अरब डॉलर का सालाना व्यापार हो सकता है. अभी भारत-चीन व्यापार 70 अरब डॉलर का है.
क्षेत्रीय एकीकरण दक्षिण एशिया के सामने बड़ी चुनौती है, पर यहां की राजनीति इसमें अड़ंगा लगाती है. पिछले साल नवंबर में काठमांडू में हुए दक्षेस सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा. यह काम दक्षेस के मंच पर नहीं होगा, तो किसी दूसरे मंच से होगा. मोदी ने यह बात पाकिस्तान की आनाकानी से उपजी परिस्थितियों के मद्देनजर कही थी. उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल संपर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ कर सभी देश इसके लिए तैयार थे.
पाकिस्तान की आनाकानी के बाद भारतीय राजनय में एक बुनियादी बदलाव आया है. अब भारत दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने लगा है. इसकी शुरुआत 15 जून को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआइएन) से हुई है.
भारत अगले कुछ दिनों में इसी आशय का एक त्रिपक्षीय समझौता अब अफगानिस्तान व ईरान से करने जा रहा है. इसके तहत ईरान के चहबहार बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहां से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन सड़क मार्ग से होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने ईरान की सीमा से होकर 215 किमी लंबे डेलाराम-जाराज मार्ग का निर्माण अफगान में किया है, जो निमरोज प्रांत की पहली पक्की सड़क है. इस परियोजना पर भारत ने लगभग 750 करोड़ रुपये लगाये हैं.
पाकिस्तान के रवैये को देखते हुए भारत ने अब उप-क्षेत्रीय समझौतों में शामिल होने का फैसला किया है. साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका शामिल हैं.
इसी तरह बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्निकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं. म्यांमार से होकर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को जोड़नेवाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाएं जापान और चीन की मदद से चलनेवाली हैं.
पिछले साल नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के देशों के लिए जिस उपग्रह की बात की थी, उसमें भी पाकिस्तान के अलावा सभी देशों ने दिलचस्पी दिखायी है. काठमांडू में दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर पता नहीं वह इसमें उत्साह से हिस्सा लेगा या नहीं. भारत को ऐसी ज्यादातर परियोजनाओं में दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा. सीमा विवाद के बावजूद चीन इस मामले में भारत का साथ देने का बेहद इच्छुक है.
इन रास्तों से होकर यात्र और व्यापार का इतिहास पुराना है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग की पिछले साल सितंबर में भारत यात्र के दौरान दोनों देशों के बीच नाथूला वैकल्पिक मार्ग से यात्र शुरू किये जाने को लेकर समझौते पर दस्तखत हुए थे. हजारों साल पहले से लेकर पचास के दशक तक ऐसे दर्जनों रास्ते थे, जिनसे होकर साधु-महात्मा, योगी और व्यापारी बिना किसी पासपोर्ट या आज्ञा-पत्रों के यात्र किया करते थे. अब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था सारी दुनिया को एक करने की कोशिश कर रही है, परंपरागत रास्तों पर फिर से निगाहें जा रहीं हैं.
2003 में अटल जी की चीन यात्र के दौरान चीन ने सिक्किम में भारत की संप्रभुता को स्वीकार किया था. वह एक राजनीतिक सफलता थी, साथ ही परंपरागत रास्तों को खोलने की शुरुआत भी.
2004 में दोनों देशों ने नाथूला और जेपला नामक दो दर्रो को खोलने का समझौता किया. इन दर्रो से होकर तिब्बत और सिक्किम के बीच सैकड़ों साल से आवागमन चलता था. दोनों देशों ने निश्चय किया कि नाथूला के रास्ते होनेवाले परंपरागत व्यापार को फिर से शुरू किया जाये. और 5 जुलाई, 2006 से यह रास्ता व्यापार के लिए खोल दिया गया.
नाथूला मार्ग प्राचीन रेशम मार्ग की एक शाखा रहा है. रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक मार्गो का जाल था, जिसके जरिये एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे.
इसमें सबसे प्रसिद्ध उत्तरी रेशम मार्ग है, जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिससे निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी. रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा साढ़े छह हजार किमी लंबा था. इसका नाम चीन से आनेवाले रेशम पर पड़ा. यह कोई एक रास्ता नहीं था, बल्कि अनेक रास्तों का जाल था.
भारत और चीन के बीच दक्षिण रेशम मार्ग भी था. म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते भारत को चीन से जोड़ने की पहल चीन ने की है. चीन के राष्ट्रपति ने मालदीव, श्रीलंका और भारत की यात्र के दौरान दक्षिणी चीन सागर और हिंद महासागर को जोड़नेवाले नौवहन रेशम मार्ग के विकास पर भी चर्चा की थी.
शी ने दक्षिणी रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखायी, जिसे बीसीआइएम कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है. सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों को बेशक ध्यान में रखा जाये, पर रास्तों को खोलना हमारे हित में ही होगा.

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