।।प्रमोद भार्गव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से मतदाता को नकारात्मक मतदान का अधिकार मिल गया है. संविधान पीठ ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया है कि वह इवीएम में विकल्प के रूप में ‘इनमें से कोई नहीं’ का बटन भी शामिल करे. हालांकि चुनाव आयोग इस विकल्प का समर्थन पहले ही कर चुका है, पर केंद्र सरकार इसके समर्थन में नहीं थी. मौजूदा चुनाव प्रणाली में प्रारूप 49 एक ऐसी अर्जी है, जो उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार मतदाता को देती है, लेकिन इसमें गोपनीयता नहीं रहती. समाजसेवी अन्ना हजारे अरसे से मांग कर रहे थे कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से कोई भी मतदाता की उम्मीदों पर खरा उतरनेवाला न हो, तो उसकी नपसंदगी को तरजीह दी जाये. भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी खारिज के हक का समर्थन कर चुके हैं. यह बयान उन्होंने गांधी नगर में दिया था. कुछ समय पहले कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने भी इसे सही ठहराया था. लेकिन देखना होगा कि क्या केंद्र सरकार इस ऐतिहासिक फैसले को स्थिर रहने देगी?
उम्मीदवार को खारिज करने अथवा वापस बुलाने की मांग नयी नहीं है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान समेत कुछ राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था में प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को मिला हुआ है, किंतु सांसद और विधायकों पर यह नियम लागू नहीं होता. जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिहाज से चुनावे में सभी उम्मीदवारों को खारिज करने और जनमत संग्रह के जरिये चुने गये प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार जरूरी है. अमेरिका में यह अधिकार 1903 से लागू है. कनाडा में प्रधानमंत्री को वापस बुलाने का हक जनता को मिला है. वेनेजुएला में इसी हक के तहत जनमत संग्रह के जरिये ह्यूगो शावेज को राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया था.
यदि अदालत का यह फैसला वजूद में बना रहता है, तो दागी और भ्रष्ट प्रत्याशियों को टिकट देने की राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा. नापसंदगी का मत अधिक होने पर राजनीतिक दलों को सबक मिलेगा और इस तरह मतदाताओं की मजबूती से देश में एक नये युग का सूत्रपात होगा. भारतीय लोकतंत्र और राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में जो अनिश्चय, असमंजस का जो कोहरा छाया हुआ है, यह इतना गहरा पहले कभी नहीं रहा. राष्ट्रीय हित और क्षेत्रीय समस्याओं को हाशिये पर छोड़ कर ज्यादातर जनप्रतिनिधियों ने बेशर्मी से सत्ता को स्वयं की समृद्धि का साधन बना लिया है. आपराधिक, सत्ता व धनलोलुप मानसिकता के जो प्रतिनिधि लोकसभा या विधानसभाओं में पहुंचते हैं, वे वैधानिक-अवैधानिक तरीके से सत्ता के साथ जुड़ कर अपने आर्थिक स्नेत मजबूत करने में जुटे जाते हैं और आम जनता तथा इलाके की समस्याओं को एकदम भूल जाते हैं.
इतना ही नहीं, सत्ता के लालच में दल बदलनेवाले उम्मीदवार कई बार बेहद हास्यास्पद व गंभीर स्थिति पैदा कर देते हैं. ऐसे उम्मीदवार पिछले चुनाव में जिस पार्टी से चुनाव लड़ रहे होते हैं, अगली बार दल बदल कर और हवा का रुख भांप कर किसी अन्य पार्टी से चुनाव लड़ते हैं. ये तथाकथित तिकड़बाज चुनाव लहर का फायदा उठा कर लगातार सत्ता का दोहन करते रहते हैं. वैसे भी वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राजनीतिक दल मुद्दाविहीन हैं और नकारात्मक वोट पाने के लिए तरह-तरह के गंठजोड़ करते रहते हैं. इसलिए कई क्षेत्रों में मतदाता सत्ता परिवर्तन से ज्यादा आचरणहीन सत्ताधारियों को अस्वीकार करने की इच्छा पाले हुए हैं, जिससे व्यवस्था की जड़ता दूर हो.
ऐसे में मतदाता को मिलनेवाला नकारात्मक मतदान का अधिकार चुने गये जनप्रतिनिधि को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में सहायक हो सकता है. हालांकि किसी प्रत्याशी को पसंद नहीं करने का अर्थ यह कदापि नहीं होना चाहिए कि संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया या प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अस्वीकार किया जा रहा है, बल्कि अस्वीकार के हक से तात्पर्य यह होना चाहिए कि मतदाता अथवा क्षेत्र का बहुमत ऐसे उम्मीदवारों को नकार रहा है, जिनकी छवि जनमानस में ठीक नहीं है. मतदाताओं के बहुमत द्वारा नापसंद किये गये उम्मीदवारों को कुछ समय तक दोबारा चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित रखा जाना चाहिए.
अब सर्वोच्च अदालत के फैसले में निहित भावना का सम्मान करते हुए केंद्र सरकार को चाहिए कि संविधान संशोधन के जरिये मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को खारिज करने और चुने गये प्रतिनिधि को बीच में वापस बुलाने का संवैधानिक अधिकार देने की व्यवस्था करे. हालांकि राजनीतिक दल मतदाता को यह हक आसानी से नहीं देंगे, क्योंकि इससे बहुत से राजनेताओं के भविष्य पर तलवार लटक सकती है, लेकिन इस व्यवस्था को राजनीतिक दलों की स्वीकार्यता समय की मांग है.