1975 में ऐसे आयी इमरजेंसी
कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार सन् 1975 में 25-26 जून की रात श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने आंतरिक गड़बड़ी के बहाने देश पर इमरजेंसी थोप दी थी और देशवासियों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिये थे. अब उस त्रासदी के 40 साल बाद उसके दिये सबकों को समझने व अंदेशों को दूर करने के […]
कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
सन् 1975 में 25-26 जून की रात श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने आंतरिक गड़बड़ी के बहाने देश पर इमरजेंसी थोप दी थी और देशवासियों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिये थे. अब उस त्रासदी के 40 साल बाद उसके दिये सबकों को समझने व अंदेशों को दूर करने के लिए याद रखना जरूरी है कि तब आपातकाल क्योंकर व कैसे हमारे ऊपर थोपा गया और खत्म होने से पहले क्या-क्या नष्ट कर गया.
श्रीमती गांधी ने एक इमरजेंसी पाकिस्तान से 1971 में लड़े गये युद्ध के वक्त भी घोषित की थी. इसमें पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गये और बंग्लादेश नामक नये राष्ट्र का उदय हुआ, तो भारतीय जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने अभिभूत होकर उन्हें ‘दुर्गा’ तक कह डाला था. लेकिन, दुर्भाग्य से श्रीमती गांधी अपना यह सम्मोहन बचा कर नहीं रख सकीं.
देश भर में फैलते जनरोष के बीच आंदोलित विपक्षी दल जल्दी ही उन पर हमलावर हो उठे और राजनारायण ने चुनाव याचिका दायर कर उन्हें अदालत में घसीट लिया. 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इस याचिका का फैसला करते हुए उनको सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया और रायबरेली से उनका चुनाव रद कर दिया.
श्रीमती गांधी के खिलाफ आंदोलित विभिन्न विपक्षी दलों व समूहों की अगुआई कर रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 24 जून को राजधानी में एक रैली में कह दिया कि पुलिस व सैन्य अधिकारियों को सरकार के अनैतिक और अवैध आदेश नहीं मानने चाहिए, तो जैसे आग में घी पड़ गया. इसे विद्रोह भड़काने की कोशिश के तौर पर लेकर श्रीमती गांधी ने 25 जून, 1975 की रात को आंतरिक सुरक्षा को खतरा बता कर देश में इमरजेंसी लागू करा दी.
सारे विरोधी नेताओं को जेलों में ठूस दिया, नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिये और अखबारों पर सेंसरशिप थोप दी. यह सब करने की उन्हें इतनी हड़बड़ी थी कि राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इसकी घोषणा कराने से पहले उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक तक नहीं बुलायी.
इस काली रात की सुबह इक्कीस महीने बाद हुई. इस दौरान किसी भी लोकतांत्रिक मूल्य को नहीं बख्शा गया. संविधान में अवांछनीय संशोधन कर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया और चुनाव टाल दिये गये.
इससे जो समय मिला, उसे श्रीमती गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी को ‘युवराज’ के तौर पर स्थापित करने में लगाया गया. 1976 बीतते-बीतते कुछ ऐसी खुफिया रिपोर्टे आयीं कि अब स्थितियां श्रीमती गांधी के अनुकूल हो गयी हैं और अब चुनाव हों तो उनकी सत्ता में शानदार वापसी होगी. इन्हीं रिपोर्टो के भरोसे श्रीमती गांधी ने 18 जनवरी, 1977 को अचानक लोकसभा चुनावों का ऐलान करा दिया. इमरजेंसी फिर भी नहीं हटायी.
तब हटायी जब चुनावों के नतीजे आ गये और वे न सिर्फ सत्ता से बाहर हो गयीं, बल्कि अपनी रायबरेली सीट भी नहीं बचा सकीं. इमरजेंसी के दौरान वे इतने क्रूर दमन पर उतरी रहीं कि देश की लोकतंत्रसमर्थक शक्तियों द्वारा प्रायोजित शांतिपूर्ण प्रतिरोध एक पल को भी अपनी मजबूती प्रदर्शित नहीं कर पाया.