भाजपा की चुनौतियां

भाजपा और नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले जिन उच्च नैतिक मानदंडों और पारदर्शिता के आधार पर सुशासन के दावे और वादे किये थे, उस आधार पर ही सवाल उठने लगे हैं. लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है लोक मानस में अपने लिए एक अलग छवि गढ़ने और फिर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 26, 2015 5:41 AM
भाजपा और नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले जिन उच्च नैतिक मानदंडों और पारदर्शिता के आधार पर सुशासन के दावे और वादे किये थे, उस आधार पर ही सवाल उठने लगे हैं.
लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है लोक मानस में अपने लिए एक अलग छवि गढ़ने और फिर उस साख की रक्षा करने की. यही कारण है कि राजनीतिक दलों की छवियों को बनाने-बिगाड़ने के खेल में अब पेशेवरों की सेवा भी ली जाने लगी है.
पिछले साल के लोकसभा चुनाव में अपने वादों और दावों के बूते भाजपा ने लोक मानस में एक उम्मीद जगा दी थी कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने भर से देश और राजनीति का चाल-चरित्र-चेहरा बदल जायेगा. घोटालों-भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपीए सरकार, खासकर कांग्रेस, की साख धूमिल हो चुकी थी. ऐसे में नरेंद्र मोदी का ‘सुशासन’, ‘सबका साथ-सबका विकास’ और ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का वादा भाजपा की छवि को नये सिरे से गढ़ने में कामयाब रहा था. यह नरेंद्र मोदी में नेतृत्व में जगा भरोसा ही था, जिसके चलते देश का आम मतदाता राजनीतिक इतिहास की परतों से धूल हटाने या आरोप-प्रत्यारोपों पर कान देने की बजाय, मोदी के नेतृत्व में भविष्य के सपनों को पंख लगाने के इरादे से मतदान करने पहुंचा.
इस तरह तीन दशक के बाद कोई पार्टी अकेले बहुमत के आंकड़े के साथ संसद में पहुंची. पिछले महीने मोदी सरकार अपने एक साल पूरे होने के मौके पर जिस आत्मविश्वास से लवरेज नजर आ रही थी, कहा जा सकता है कि सरकार और पार्टी इस दौरान अपनी साख की रक्षा करने में कमोबेश कामयाब भी रही.
लेकिन, बीते कुछ दिनों की सुर्खियां बता रही हैं कि पार्टी को अब अपनी साख की रक्षा के लिए आंतरिक और बाहरी, यानी दोतरफा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. पहली चुनौती अंदरूनी है, जिसमें विभिन्न दबावों के कारण साल भर चुप रहे नेता मुंह खोलने लगे हैं. पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को आपातकाल की आशंका है तो पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को 75 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को ‘ब्रेन डेड’ घोषित कर दिये जाने का दर्द सता रहा है. पार्टी के पुराने नेता कीर्ति आजाद और नौकरशाह से राजनेता बने आरके सिंह के सुर भी बगावती नजर आ रहे हैं. इन नेताओं के बयानों से संकेत मिलते हैं कि साल भर पहले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एकजुट हुई पार्टी की धड़ेबंदी फिर सतह पर आ सकती है.
हालांकि, यह फिलहाल माना जा सकता है कि ऐसी अंदरूनी तकरार उन पार्टियों में समय-समय पर सामने आती रहती हैं, जो आलाकमान के आदेश की लकीर पकड़ कर नहीं चलतीं. खासकर जब कोई पार्टी सत्ता में हो, तो उसके कुछ वरिष्ठ नेताओं को सत्ता सुख में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिल पाने की पीड़ा बगावती तेवर अपनाने के लिए उकसाती रहती है.
परंतु, भाजपा की चुनौतियां यहीं तक सीमित नहीं है. आइपीएल में अरबों रुपये के कथित घोटाले के बाद देश से भागे ललित मोदी की मदद करने को लेकर पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं-मंत्रियों के खिलाफ आरोपों और दस्तावेजों का पुलिंदा बाहर आ ही रहा था, कि अब महाराष्ट्र की महिला एवं बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे पर 206 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप भी लग गया है. ऐसे आरोपों पर पार्टी या सरकार की ओर से अब तक कोई कार्रवाई नहीं हो पाने के कारण प्रधानमंत्री के ‘न खाने दूंगा’ के वादे पर चौतरफा सवाल उठने लगे हैं.
उधर, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर उठ रहे सवालों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ मामला चलाने की अनुमति भी दे दी है. अदालत का रुख सामने आते ही विरोधी दलों ने मंत्री को हटाने की मांग भी कर डाली है. यानी जिन उच्च नैतिक मानदंडों और पारदर्शिता के आधार पर भाजपा ने सुशासन के दावे किये थे, उस आधार पर ही गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
मोदी सरकार ने शासन के एक साल पूरे होने के जलसे में अपनी जो कुछ बड़ी उपलब्धियां गिनायी थीं, उनमें भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विदेश नीति के मोरचे पर देश की नयी छवि का निर्माण प्रमुख था.
परंतु, हालिया खबरें भ्रष्टाचार के साथ-साथ विदेश नीति के मोरचे पर भी पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहीं. पिछले दिनों लखवी के मुद्दे पर पाकिस्तान और चीन के रवैये ने साबित किया है कि भारत को घेरने की उनकी रणनीति में कोई बदलाव नहीं आया है. ऐसे में यह दावा भी शक के घेरे में ही रहेगा कि भारत पिछले एक साल में पाकिस्तान को छोड़ कर दक्षिण एशिया के अपने अन्य पड़ोसियों को साधने में सफल रहा है.
कुल मिला कर, बीते एक साल के दौरान गढ़ी गयी छवि और उससे निर्मित साख की रक्षा करना पार्टी और सरकार के लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है. यह चुनौती इसलिए भी बड़ी है, क्योंकि पार्टी की चुनावी जीत का पिछले साल शुरू हुआ सिलसिला दिल्ली विधानसभा चुनाव में टूट चुका है, जबकि इस साल बिहार का लोक मानस भी उसके वादों और दावों की फिर से पड़ताल करनेवाला है.

Next Article

Exit mobile version