मुफ्ती-मोदी गंठबंधन की मुश्किलें

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार न तो ‘अच्छा कामकाज’ हो पा रहा है और न ही कश्मीर के जटिल राजनीतिक सवालों को हल करने की दिशा में कोई ठोस पहल होती दिख रही है. कश्मीर घाटी में मुफ्ती-मोदी गंठबंधन अपनी राजनीतिक चमक खोता नजर आ रहा है. पिछले सप्ताह मैं कश्मीर में था. इससे पहले विधानसभा चुनावों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 26, 2015 5:49 AM
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
न तो ‘अच्छा कामकाज’ हो पा रहा है और न ही कश्मीर के जटिल राजनीतिक सवालों को हल करने की दिशा में कोई ठोस पहल होती दिख रही है. कश्मीर घाटी में मुफ्ती-मोदी गंठबंधन अपनी राजनीतिक चमक खोता नजर आ रहा है.
पिछले सप्ताह मैं कश्मीर में था. इससे पहले विधानसभा चुनावों के दौरान गया था. तब उत्तर कश्मीर के मशहूर शहर सोपोर भी जाना हुआ. लेकिन इस बार वहां जाना संभव नहीं हो सका. कारण, जिस दिन जाना चाहता था, बारामूला-सोपोर मार्ग ‘सुरक्षा कारणों’ से बंद पड़ा था. सुस्वादु सेबों के लिए मशहूर सोपोर 1992-2004 के दौर में चरमपंथियों और अलगाववादियों का सबसे मजबूत दुर्ग समझा जाता था.
बीते दसेक वर्षो के दौरान कश्मीर में माहौल तेजी से सुधरा. लेकिन चरमपंथ और अलगाववाद का असर घाटी के अन्य शहरों-कस्बों के मुकाबले आज भी सोपोर में ज्यादा है. हर चुनाव में सबसे कम मतदान प्रतिशत यहीं दर्ज होता है. अफजल गुरु यहीं का था.
हुर्रियत नेता सैय्यद अली शाह गिलानी भी यहीं के हैं. लेकिन सोपोर में इन दिनों उनके अपने समर्थकों पर भी गोलियां चल रही हैं.
पिछले एक महीने से सोपोर बिल्कुल नये ढंग के माहौल से जूझ रहा है. अलग-अलग पृष्ठभूमि के छह नागरिकों की अज्ञात बंदूकधारियों ने हत्या कर दी. अब तक कोई गिरफ्तारी नहीं. इससे आम लोगों में दहशत है. आये दिन यहां अघोषित कफ्यरू सा माहौल है. कश्मीर घाटी के मन-मिजाज, नयी सरकार की कार्यदिशा और दक्षता का इससे संकेत मिलता है.
इस माहौल के लिए सरकार और चरमपंथी एक-दूसरे पर इल्जाम लगा रहे हैं. सबसे पहली हत्या सेल्युलर फोन सेवा से जुड़ी कंपनी के एक गैरसरकारी कर्मी की हुई. बाद के दिनों में गिलानी की हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से जुड़े एक स्थानीय नेता की गोली मार कर हत्या कर दी गयी. किसी चरमपंथी गुट ने इन हत्याओं की जिम्मेवारी नहीं ली. हुर्रियत के दोनों धड़े और जेकेएलएफ जैसे अलगाववादी संगठन सोपोर की हत्याओं के लिए नये किस्म के ‘इख्वानों’ को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं. हालांकि अभी तक उन्होंने इस बारे में किसी तरह का सबूत नहीं पेश किया है.
लगभग तीन सप्ताह खामोश रहने के बाद मुफ्ती सरकार ने इन रहस्यमय हत्याओं के जिम्मेवार लोगों की शिनाख्त कर लेने का दावा किया और लश्करे-इस्लाम नामक नये चरमपंथी गुट को जिम्मेवार ठहराया. बताया गया कि यह नया गुट सैय्यद सलाहुद्दीन की अगुवाई वाले हिज्बुल मुजाहिद्दीन के कुछ विदोहियों ने मिल कर बनाया है. सरकार ने इस गुट के जिन दो कमांडरों की शिनाख्त की है, उनके नाम हैं-अब्दुल कय्यूम नजर और इम्तियाज अहमद कांडू. इनकी गिरफ्तारी के लिए 10-10 लाख के इनाम का भी एलान हुआ. लेकिन अलगाववादी तंजीमें सरकारी दावे को बेबुनियाद बता रही हैं.
यही नहीं, सोपोर के आम लोग भी सरकारी दावे में यकीन नहीं कर रहे हैं. कुपवाड़ा के एक दुकानदार ने पुलिस में शिकायत दर्ज करायी कि सोपोर की हत्याओं के जिम्मेवार जिन दो इनामी आतंकियों की तसवीरें अखबारों में छपायी गयी हैं, उनमें एक तसवीर तो उसकी अपनी है! अपनी सफाई में पुलिस ने कहा कि ‘वांटेड आतंकी’ का चेहरा-मोहरा संयोगवश कुपवाड़ा के उक्त दुकानदार के चेहरे से मिलता-जुलता है. लेकिन पुलिस-दलील पर सवालों का उठना जारी है. विपक्ष के नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सोपोर मामले में ‘सरकारी थीसिस’ पर सवाल उठाते हुए कहा कि सरकार को इसकी निष्पक्ष जांच करानी चाहिए.
यह भी पूछा कि राज्य सरकार रक्षामंत्री मनोहर पार्रीकर के उस विवादास्पद बयान पर खामोश क्यों है, जिसमें उन्होंने कश्मीर में ‘आतंक के खिलाफ आतंक’ के इस्तेमाल की दलील दी थी! नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उमर की अगुवाई में लाल चौक पर बड़ी रैली भी की, जहां उन्होंने मुफ्ती सरकार से सवाल किया कि, ‘वह सोपोर मामले की जांच क्यों नहीं कराते कि इन हत्याओं के पीछे कोई आतंकी गुट है या सरकारी एजेंसियों द्वारा संरक्षित-समर्थित ‘इख्वान’ हैं?’
उल्लेखनीय है कि 1994-2002 के दौर में घाटी के कई इलाकों में सरकारी एजेंसियों की मदद से आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों का हथियारबंद गुट बनाया गया था. इन लड़ाकों को ‘इख्वान’ कहा जाता था.
इनका काम चरमपंथियों के खिलाफ सरकारी एजेंसियों को मदद करना और उनकी तरफ से लड़ना था. सोपोर से लगे सोनाबारी इलाके में आत्मसमर्पित आतंकी कूका पारे की अगुवाई में ‘इख्वान-ए-मुसलेमिन’ नामक संगठन खड़ा हुआ था. कूका बाद के दिनों में विधायक भी बना, लेकिन कुछ समय बाद उसकी चरमपंथियों द्वारा हत्या कर दी गयी. सवाल उठाया जा रहा है, क्या उसी तरह के ‘इख्वान’ फिर से खड़े किये जा रहे हैं?
हुर्रियत धड़ों की तरफ से सोपोर कांड को लेकर दो-दो बार ‘श्रीनगर बंद’ किया जा चुका है. अलगाववादियों की गतिविधियों पर अकुंश लगाने के मकसद से पिछले शुक्रवार को बारामूला से सोपोर जाने वाली सड़क बंद कर दी गयी. वहां चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बलों की तैनाती और नागरिक जन-जीवन के अस्तव्यस्त होने का यह माहौल कश्मीर में आतंक-चरमपंथ के सबसे भयानक दिनों की याद ताजा कर रहा है. यह सब अलगाववादी तंजीमों के ‘सोपोर चलो’ आह्वान को विफल करने के लिए किया गया. सोपोर के साथ श्रीनगर भी ‘बंद’ रहा.
सोपोर के लोगों को एक तरफ सरकारी दलील पर भरोसा नहीं हो रहा है, तो दूसरी तरफ वे कश्मीरी तंजीमों से ज्यादा सक्रिय हस्तक्षेप की उम्मीद कर रहे हैं. शहर के जाने-माने युवा अधिवक्ता अल्ताफ मेहराज ने मुझे बताया, ‘यहां आम लोग सरकार के रवैये और बयान पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं.
आखिर इन हत्याओं के लिए जिम्मेवार लोगों को बेनकाब करने की जिम्मेवारी किसकी है? अब तक क्या किया गया? हो सकता है, सोपोर को इस बात की सजा दी जा रही हो कि उसने अलगाववादी तंजीमों का साथ क्यों दिया!’ हाल के इन घटनाक्रमों और अलगाववादी तंजीमों की गतिविधियों में अचानक आयी तेजी से एक बात तो साफ है कि घाटी में इस बार मुफ्ती सईद का नेतृत्व पहले की तरह लोगों को पसंद नहीं आ रहा है.
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है-मुफ्ती का मोदी से गंठबंधन. यह बेमेल गंठबंधन घाटी में लोगों के गले नहीं उतर रहा. मुफ्ती ने सोचा था, अपने ‘अच्छे कामकाज’, ‘कल्याणकारी योजनाओं’ और ‘पुराने घावों पर मरहम’ की नीति के बल पर वह कश्मीर के राजनीतिक सवालों को हाशिये पर डालने में सक्षम होंगे. पर महज चार महीने में उनकी यह सोच गलत साबित होती दिख रही है.
न तो बाढ़-पीड़ितों को राहत के ठोस इंतजाम हो पाये, न ही निर्माण की जरूरी योजनाएं शुरू हो पायीं. न तो ‘अच्छा कामकाज’ हो पा रहा है और न ही कश्मीर के जटिल राजनीतिक सवालों को हल करने की दिशा में कोई ठोस पहल होती दिख रही है. कश्मीर घाटी में मुफ्ती-मोदी गंठबंधन अपनी राजनीतिक चमक खोता नजर आ रहा है.

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