विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक होने तथा साहित्यिक, धार्मिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक विचार-संपदा की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध होने के बावजूद संस्कृत उपेक्षित रही है. हमारे देश में यह भाषा अध्ययन और प्रयोग के स्तर पर हाशिये पर है. ऐसे में इस सप्ताहांत थाइलैंड की राजधानी बैंकॉक में शुरू हो रहे चार-दिवसीय विश्व संस्कृत सम्मेलन से बहुत उम्मीदें हैं.
इस सम्मेलन में 250 भारतीय विद्वान भाग ले रहे हैं. इस शिष्टमंडल का नेतृत्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा किये जाने से यह संकेत मिलता है कि संस्कृत के उत्थान में सरकार की रुचि है. इस आयोजन में 60 देशों के करीब 550 विद्वान उपस्थित होंगे, जिनमें जर्मनी, जापान और थाइलैंड के 50-50 प्रतिनिधि हैं. आशा है कि इन विशेषज्ञों के बीच विचारों के परस्पर आदान-प्रदान से संस्कृत के नये भविष्य की सकारात्मक रूप-रेखा बनेगी. दिल्ली में 1972 में हुए पहले सम्मेलन के बाद से तीन-चार वर्षो के अंतराल पर दुनिया के अलग-अलग शहरों में इसका आयोजन होता रहा है.
लेकिन यह भी समझना होगा कि संस्कृत के प्रचार-प्रसार और इसकी विपुल ज्ञान-संपदा को जानने-समझने के लिए ऐसे आयोजन ही पर्याप्त नहीं हैं. यह स्वागतयोग्य है कि योग और संस्कृत जैसे पारंपरिक ज्ञान-परंपरा को सरकार ने प्रोत्साहित करने का मन बनाया है, परंतु इन प्रयासों को सुदृढ़ करने के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में संस्कृत की शिक्षा पर ध्यान देने की आवश्यकता है.
साथ ही, ऐसे प्रयासों को संकीर्ण दायरों में बांधने की कोशिशों से भी बचा जाना चाहिए. इस सम्मेलन में 30 प्रतिनिधियों के साथ भाग ले रही संस्था संस्कृत भारती के सचिव ने प्रसन्नता के साथ बयान दिया है कि इस आयोजन में भारतीय संस्कृति के बारे में ‘विकृत विचार’ रखनेवाले संस्कृत के पश्चिमी विद्वानों को प्रमुखता नहीं दी जा रही है. ज्ञान-विज्ञान की बढ़ोतरी के लिए तर्को, विचारों परिकल्पनाओं की स्वतंत्र और निर्बाध आवाजाही मूलभूत शर्त है. दुनिया के 40 देशों के 254 विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जाती है. देश में उच्च शिक्षा के अधिकांश संस्थानों में संस्कृत विभाग हैं.
कई अन्य संस्थाएं भी संस्कृत के प्रसार में सक्रिय हैं. प्राच्य ज्ञान के विकास के लिए सरकारी प्रयत्नों में गंभीरता एक अनिवार्य शर्त है. साथ ही, संस्कृत जैसी उदात्त भाषा किसी एक धर्म, समुदाय और विचारधारा के छोटे दायरे में सीमित नहीं की जानी चाहिए. सरकार और समाज को समग्र दृष्टि के साथ संस्कृत को मुख्यधारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए.