सामाजिक न्याय का छलावा
पिछले दिनों आदिवासी दिवस पर राज्य भर में कई कार्यक्रम हुए. उनके हक की आवाज बुलंद की गयी. लेकिन एक उदाहरण से यह साबित होता है कि असल स्थिति क्या है. पाकुड़-साहिबगंज जिलों में बहुतायत में पायी जानेवाली ‘किसान’ अनुसूचित जनजाति को सरकार खतियानी अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में मानती है. ऐसे खतियानधारियों को 2010 […]
पिछले दिनों आदिवासी दिवस पर राज्य भर में कई कार्यक्रम हुए. उनके हक की आवाज बुलंद की गयी. लेकिन एक उदाहरण से यह साबित होता है कि असल स्थिति क्या है. पाकुड़-साहिबगंज जिलों में बहुतायत में पायी जानेवाली ‘किसान’ अनुसूचित जनजाति को सरकार खतियानी अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में मानती है.
ऐसे खतियानधारियों को 2010 तक तो किसान जनजाति का प्रमाणपत्र दिया जाता रहा, लेकिन उसके बाद से बिना किसी सरकारी आदेश के प्रमाणपत्र से वंचित किया जाने लगा. एक तरह से यह सामाजिक अन्याय है, जिनमें व्यक्ति और समुदाय को उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर अनुचित तरीके से अवसरों से वंचित किया जाता है. इस स्थिति में ऐसा लगता है कि आदिवासी दिवस, झारखंड दिवस, अधिकार दिवस केवल अहं की संतुष्टि के लिए मनाये जाते हैं.
ले कर्नल (सेवानिवृत्त) जयशंकर प्र भगत, राजमहल