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आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार यह और बात है कि हम खुद को सबसे अधिक देशभक्त होने का दावा करते हैं तथा ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ जैसे गीत या राष्ट्रगान सुन कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं, लेकिन हमारी देशभक्ति के दिखावे की यही हद है.कुछ ही महीने पहले, मैंने बंगलुरू में अपने घर […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
यह और बात है कि हम खुद को सबसे अधिक देशभक्त होने का दावा करते हैं तथा ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ जैसे गीत या राष्ट्रगान सुन कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं, लेकिन हमारी देशभक्ति के दिखावे की यही हद है.कुछ ही महीने पहले, मैंने बंगलुरू में अपने घर के लिए एक गैस सिलिंडर बुक करने की कोशिश की थी. जैसा कि आप में से बहुत लोग जानते हैं, आजकल भारत में ऐसा करना बहुत आसान हो गया है.
आप एक नंबर पर फोन करते हैं, एक ऑटोमैटिक सिस्टम आपके निवेदन को पंजीकृत कर लेता है तथा इसके लिए आपको धन्यवाद देता है और आप फोन काट देते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में 15 सेकेंड से अधिक समय नहीं लगता है. दो-चार दिनों में आपके पास सिलिंडर पहुंच जाता है.
परंतु इस बार सिलिंडर मेरे पास नहीं पहुंचा और मैं परेशान था कि ऐसा क्यों हुआ. मैंने भारत गैस के कार्यालय को फोन किया, तो मुझे अनुदान पाने के लिए कुछ वित्तीय दस्तावेज जमा करने को कहा गया. मैंने उन्हें बताया कि मैं अनुदान के लिए योग्य नहीं हूं और पूछा कि मुझे पूरे दाम पर सिलिंडर पाने के लिए क्या करना होगा. मुझे उन्होंने कार्यालय आने के लिए कहा और मैंने कुछ कागजी कार्यवाही के लिए ऐसा ही किया. (पहली बार मैं उनके कार्यालय गया था).
कार्यालय में भीड़ थी और अफरातफरी मची हुई थी. कुछ कर्मचारियों को जानकारी नहीं थी कि पंजीकरण रद्द करने का दस्तावेज फॉर्म-5 क्या है और यह कहां रखा गया है. ऐसा शायद इसलिए था कि इसकी कोई मांग नहीं थी. बहरहाल, वह फॉर्म वहां उपलब्ध था और मैंने उसे भर कर जमा करा दिया. कुछ और लिखा-पढ़ी तथा कार्यालय के एक और दौरे के बाद मैं अनुदान से अपना पंजीकरण रद्द कराने में सफल हुआ और मुझे सिलिंडर की आपूर्ति कर दी गयी.
कुछ दिनों के बाद मुझे अच्छी तरह से बातचीत कर रहे एक व्यक्ति का फोन आया, जिन्हें मैं नहीं जानता था, पर वे मुझे मेरे नाम से संबोधित कर रहे थे. वे एक अधिकारी थे और अनुदान से नाम हटानेवाले लोगों को फोन कर रहे थे. उन्होंने बताया कि अगले दिन, जो रविवार का दिन था, सरकार ने अनुदान का दावा छोड़नेवाले लोगों के लिए एक आयोजन किया है, जिसमें ऐसे लोग मंत्री की उपस्थिति में सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा कर सकें.
मैंने उन्हें उत्तर दिया कि मैं पहले ही ऐसा कर चुका हूं, तो उन्होंने कहा कि उनको इस बात की जानकारी है, लेकिन उन्होंने विनम्रता से अनुरोध किया कि मैं आयोजन में उपस्थिति होकर सार्वजनिक रूप से ऐसा फिर करूं. मैंने ऐसा करने से मना कर दिया.
मैं ये बातें भारत सरकार की इस शिकायत के कारण लिख रहा हूं कि प्रधानमंत्री द्वारा अनुदान छोड़ने की अपील के तीन महीने बाद भी मात्र 0.35 फीसदी लोगों ने अनुदान के साथ सिलिंडर खरीदने से मना किया है. रसोई गैस का उपभोग कर रहे देश के 15 करोड़ से अधिक घरों में से सिर्फ छह लाख लोगों ने बाजार मूल्य पर सिलिंडर खरीदने की इच्छा दिखायी है.
पेट्रोलियम मंत्रलय के प्रभारी मंत्री धर्मेद्र प्रधान जनवरी से ही मध्यवर्गीय भारतीयों को पूरी कीमत अदा करने का निवेदन कर रहे हैं, ताकि अनुदान गरीब लोगों तक पहुंच सके. सरकार को हर सिलिंडर पर 207 रुपये का नुकसान होता है और इसकी कुल राशि 40 हजार करोड़ है.
इस तरह से मध्य वर्ग द्वारा सहयोग का यह आसान तरीका है, लेकिन ऐसा उल्लेखनीय रूप से नहीं हो सका है. यहां तक कि अनेक ऐसे संसद सदस्य और विधायक भी हैं, जिन्होंने अभी तक अनुदान छोड़ने की घोषणा नहीं की है.
आखिर ऐसा क्यों है? मेरी राय में इसके दो कारण हैं. एक छोटा कारण तो यह है कि सरकार ने अनुदान से नाम हटाने की प्रक्रिया को कठिन बनाया है, जैसा कि मेरा अपना ही अनुभव है. गैस सिलिंडर बुक करना आसान है, क्योंकि ऑटोमैटिक सिस्टम पंजीकृत फोन नंबर से उपभोक्ता की पहचान कर लेता है.
इसी वजह से मैं अपनी उपभोक्ता संख्या जाने बिना भी गैस की बुकिंग करा सकता हूं. अनुदान छोड़ने की प्रक्रिया भी इतनी ही आसान होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं. ऑटोमैटिक सिस्टम की जगह फॉर्म भरवाया जा रहा है और लोगों को कतार में खड़ा किया जा रहा है. इसके लिए एक वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मायएलपीजी डॉट बनायी गयी है. इस लेख को लिखते समय मैंने इस वेबसाइट को देखा. इसका डिजाइन बहुत खराब है और मैं ऑनलाइन अनुदान का दावा वापस लेने का कोई विकल्प इस साइट पर नहीं देख पाया.
मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि अगर उस समय मुझे सिलिंडर मिलने में परेशानी नहीं हुई होती, तो मैं गैस कंपनी के कार्यालय जाने की जहमत नहीं उठाता, क्योंकि वह अनुभव बहुत असुविधाजनक था. इसलिए अगर संबंधित मंत्री को यह शिकायत है कि प्रधानमंत्री की यह योजना असफल हो गयी है, तो इसका कुछ दोष उन्हें भी लेना चाहिए.
लेकिन, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, यह एक छोटा कारण है. भारतीय नागरिकों, विशेष रूप से मध्य वर्ग, में अनुदान छोड़ने में हिचक का एक बड़ा कारण यह है कि उसे अपना बकाया चुकाना होता है. इसे भले ही मसले का सरलीकरण करना कहा जा सकता है, लेकिन इस बात के समर्थन में सबूतों के लिए हमें कहीं बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. तकरीबन सिर्फ तीन फीसदी भारतीय ही आयकर चुकाते हैं. इनमें मुख्य रूप से वैसे लोग शामिल हैं, जो नौकरी में हैं और उनकी आय में से कर अनिवार्य रूप से काट लिया जाता है.
मैं अक्सर हम लोगों को एक चोर देश के रूप में संबोधित करता हूं, जो अपनी सरकार से चोरी करते हैं. यह और बात है कि हम खुद के सबसे अधिक देशभक्त होने का दावा करते हैं तथा ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ जैसे गीत या राष्ट्रगान सुन कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं, लेकिन हमारी देशभक्ति के दिखावे की यही हद है.
एक ऐसे मामले में, जहां हम गरीबों से पैसा चुराते हैं और जहां सरकार हमसे मदद की गुहार लगा रही हो, हम और लालच में पड़े हैं और देश का नुकसान कर रहे हैं.

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