विकास से दूर गांव

अर्थव्यवस्था का आकलन करनेवाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी मूडीज इंवेस्टर्स सर्विस ने चालू वित्तीय वर्ष में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ढीले बने रहने की आशंका जतायी है. इस अनुमान का मुख्य आधार कम मॉनसून की संभावना और गिरती ग्रामीण आमदनी है. उल्लेखनीय है कि हमारे देश की ग्रामीण आमदनी पिछले कुछ महीनों से एकल अंकों में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 1, 2015 5:49 AM

अर्थव्यवस्था का आकलन करनेवाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी मूडीज इंवेस्टर्स सर्विस ने चालू वित्तीय वर्ष में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ढीले बने रहने की आशंका जतायी है. इस अनुमान का मुख्य आधार कम मॉनसून की संभावना और गिरती ग्रामीण आमदनी है. उल्लेखनीय है कि हमारे देश की ग्रामीण आमदनी पिछले कुछ महीनों से एकल अंकों में बनी हुई है, जो 2011 में 20 फीसदी से अधिक थी. नवंबर, 2014 में यह दर मात्र 3.8 फीसदी थी.

गांवों में आर्थिक विकास दर के धीमा होने का एक कारण मौजूदा सरकार द्वारा खर्च में कटौती भी है, जिसके आगामी महीनों में बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है. देश के अन्य क्षेत्रों में विकास की गति और संभावनाओं के साथ इस अनुमान को रख कर देखें, तो यह एक चिंताजनक खबर है.

कृषि विकास दर दो फीसदी से भी कम है और ग्रामीण रोजगार योजना के आवंटन में कमी की गयी है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की योजनाओं में भी कटौती हुई है. सामाजिक क्षेत्र से जुड़े मंत्रलयों में 2014 के बजट की तुलना में 2015 में 4.39 लाख करोड़ से अधिक की कटौती की गयी है. स्वाभाविक रूप से इन सभी कारकों का सर्वाधिक असर भारत के गांवों पर पड़ रहा है जहां देश की अधिकतर आबादी बसर करती है.

हमारे गांव कृषि और संबंधित व्यवसायों के जरिये अनाज, फल, सब्जियों और दूध जैसी वस्तुओं के उत्पादक ही नहीं हैं, बल्कि देश के औद्योगिक उत्पादन के महत्वपूर्ण उपभोक्ता भी हैं. उदाहरण के लिए सीमेंट की कुल खपत का 40 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में ही होती है. इसी तरह की स्थितियां वाहन और वस्त्र उद्योग के साथ भी हैं.

ऐसे में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है कि ग्रामीण भारत में आमदनी की कमी का नकारात्मक असर देश की अर्थव्यवस्था पर होगा. भारत उन देशों में है, जहां गांवों से शहरों की ओर पलायन की दर सबसे अधिक है. रोजगार और बेहतर जीवन की उम्मीद में गांवों से लाखों लोग हर साल शहरों का रुख करते हैं. इस कारण शहर भी भारी दबाव में हैं, जिसका अंदाजा शहरों में पानी, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी से लगाया जा सकता है.

अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट ऐसे ही बना रहा, तो सकल घरेलू उत्पादन बढ़ाने और उच्च विकास दर के दावे ख्याली पुलाव बन कर रह जायेंगे. केंद्र और राज्य सरकारें मौजूदा संकट के कारणों से वाकिफ हैं और उन्हें इससे उबरने के उपाय भी मालूम हैं. जरूरत उन उपायों को अमल में लाने की है.

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