‘डिजिटल इंडिया’ : कैंसर में पेनकिलर!
कृष्णकांत स्वतंत्र टिप्पणीकार शानदार महल बनाने की तमन्ना रखनेवाला अगर सबसे पहले गुंबद बनायेगा तो क्या होगा? इस पर कोई भी सामान्य बुद्धि वाला भी हंसेगा. लेकिन सरकारों को ऐसा करने की आदत है. मनमोहन सरकार ने बहुत कुछ ऐसा किया था, जो कैंसर की बीमारी में पेनकिलर खाने जैसा था. नयी सरकार भी वही […]
कृष्णकांत
स्वतंत्र टिप्पणीकार
शानदार महल बनाने की तमन्ना रखनेवाला अगर सबसे पहले गुंबद बनायेगा तो क्या होगा? इस पर कोई भी सामान्य बुद्धि वाला भी हंसेगा. लेकिन सरकारों को ऐसा करने की आदत है. मनमोहन सरकार ने बहुत कुछ ऐसा किया था, जो कैंसर की बीमारी में पेनकिलर खाने जैसा था. नयी सरकार भी वही कर रही है.
नरेंद्र मोदी जी ने चुनाव के दौरान कहा था कि यूपीए सरकार ने बाजारीकरण की नीति को ठीक से लागू नहीं किया, मैं उसे ठीक से लागू करूंगा. ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम उसी घोषणा का एक हिस्सा है, जिसमें पूंजीपतियों के लिए तो बहुत कुछ है, लेकिन जनता के लिए क्या है, यह अभी साफ नहीं है.
प्रधानमंत्री ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम की घोषणा के समय कहते हैं कि ‘शहर और गांव में सुविधा के कारण जो खाई पैदा होती है, उससे भी भयंकर स्थिति डिजिटल डिवाइड के कारण पैदा होती है.’
अफसोस है कि इसका समाधान वे ‘डिजिटल इंडिया’ में खोज रहे हैं. ‘डिजिटल इंडिया’ के जरिये अमीर-गरीब के बीच की खाई पाटने की कोशिश पेड़ की जड़ों को छोड़ पत्तियों पर पानी देने जैसी है. भारत में बहुसंख्या के पास सूचना का कोई साधन नहीं है. इसके मूल में अशिक्षा और गरीबी है. गरीबों तक सूचना पहुंचाने के लिए पहला उपाय उन्हें शिक्षित करना है. प्रधानमंत्री ने शिक्षा का बजट 16.5 प्रतिशत घटाने के सिवा शिक्षा पर कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की है.
शिक्षा के बिना इ-गवर्नेस या मोबाइल गवर्नेस की आम आदमी के लिए क्या उपयोगिता होगी? प्रधानमंत्री जी ‘डिजिटल डिवाइड’ से पहले ‘एजुकेशन डिवाइड’ और ‘एजुकेट इंडिया’ की बात क्यों नहीं करते?
67 वर्षो बाद भी जो जनता बिजली-शिक्षा जैसी मूलभूत चीजों से वंचित है, उसके लिए हर हाथ मोबाइल का नारा कितना कारगर होगा? जिन 90 करोड़ भारतीयों के पास फोन हैं, उनमें से आइफोन, स्मार्ट फोन की क्रय क्षमता भी मायने रखती है. 4जी-2जी का अंतर भी अहम मसला है.
खरीद क्षमता बढ़ाये बिना कार्यक्रम की सफलता संदिग्ध है.
दिल्ली जैसे महानगर में अभी इंटरनेट की स्पीड सोचनीय हालत में है. ऐसे में बिना स्पष्ट ब्लूप्रिंट के गांव-गांव इंटरनेट की योजना सफल नहीं हो सकती. सरकारी सेवाओं और दफ्तरों को डिजिटल बनाने से क्या होगा, अगर उनमें काम करनेवाले लोग और लाभार्थी जनता डिजिटल नहीं हो पा रही है.
देश में इंटरनेट की पहुंच 20 फीसदी से भी कम है. इ-क्रांति के लिए लोगों की शिक्षा, सोच, तकनीकी प्रशिक्षण और उपकरण आदि को सुलभ बनाना जरूरी है. प्रशिक्षित पेशेवरों के बिना डिजिटलीकरण का काम क्या मनरेगा कर्मियों के भरोसे होगा?
यह कार्यक्रम ‘डिजिटल इंडिया’ है, ‘डिजिटल भारत’ नहीं. सरकारी आंकड़े में 95 फीसदी स्कूल आरटीइ के मानकों पर फेल हैं. ‘डिजिटल भारत’ के लिए साक्षर भारत चाहिए. ग्रामीण भारत के जिन स्कूलों में टाट-पट्टी व ब्लैकबोर्ड नहीं हैं, वे ‘डिजिटल इंडिया’ को ओढ़ेंगे या बिछायेंगे? दालों और खाद्यान्न को महंगा कर इसके बड़े कारोबारियों को मुनाफा पहुंचाना भी तो विकास का मॉडल ही है! कहा जा रहा है कि इस रास्ते से ही विकास होगा. हो जाये तो अच्छा ही है.