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ग्रामीण भारत का सच

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जाति आधारित सामाजिक-आर्थिक जनगणना, 2011 के बहुप्रतीक्षित आंकड़े जारी कर दिये हैं. हालांकि इसमें जाति आधारित सूचनाएं शामिल नहीं हैं, जो बाद में संबंधित मंत्रालय द्वारा जारी हो सकती हैं. ये आंकड़े कई अर्थो में चौंकानेवाले और चिंताजनक हैं तथा विकास के दावों पर प्रश्नचिह्न् भी लगाते हैं. देश में […]

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जाति आधारित सामाजिक-आर्थिक जनगणना, 2011 के बहुप्रतीक्षित आंकड़े जारी कर दिये हैं. हालांकि इसमें जाति आधारित सूचनाएं शामिल नहीं हैं, जो बाद में संबंधित मंत्रालय द्वारा जारी हो सकती हैं. ये आंकड़े कई अर्थो में चौंकानेवाले और चिंताजनक हैं तथा विकास के दावों पर प्रश्नचिह्न् भी लगाते हैं.
देश में कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं, जिनमें से 17.91 करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में निवास करते हैं. इनमें से सिर्फ 7.05 करोड़ यानी 39.39 फीसदी परिवार ही ऐसे हैं, जिनके पास मशीनी कृषि उपकरण, सरकारी नौकरी, पंजीकृत व्यवसाय, किसी सदस्य की 10 हजार से अधिक मासिक आय, आयकर देना, रेफ्रिजरेटर, लैंडलाइन फोन जैसी सुविधाओं में से कम-से-कम एक उपलब्ध है.
इस जनगणना में 10.69 करोड़ परिवारों को वंचित श्रेणी में रखा गया है, जिनमें 9.16 करोड़ परिवारों का जीवनयापन अस्थायी मजदूरी के जरिये हो रहा है. ये सूचनाएं उन कड़वी सच्चाइयों को फिर रेखांकित कर रही हैं, जो दशकों से गांवों की दुर्दशा बयां करती रही हैं. ध्यान रहे, ये आंकड़े 2011 के हैं और वह वर्ष ग्रामीण आय में वृद्धि के लिहाज से हाल के बेहतरीन सालों में से एक था. तब ग्रामीण आय में वृद्धि की दर 20 फीसदी से अधिक थी, जो अब चार फीसदी से भी कम है.
बहरहाल, जातिगत जनगणना की पहल इस मायने में सराहनीय है कि इससे कल्याणकारी योजनाओं को उसके पात्र लोगों तक समुचित तरीके से पहुंचाने में मदद मिलेगी. ऐसे आंकड़े 1932 के बाद पहली बार जुटाये गये हैं, जिनमें क्षेत्र, जाति, समुदाय और आय के आधार पर जनसंख्या का वर्गीकरण किया गया है. हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारों की एजेंसियां व संस्थाएं विभिन्न समुदायों के विकास से जुड़ी सूचनाएं जुटाती रहती हैं, जिनके आधार पर नीतियां बनती हैं और वित्तीय आवंटन होता है. परंतु, अधिक विस्तृत सूचनाएं नीति-निर्धारकों के लिए हमेशा ही मददगार साबित होती हैं. देश में बीते कुछ वर्षो में कृषि संकट और आय में कमी ने ग्रामीण भारत की परेशानियों को बढ़ाया है, जिसका संकेत आत्महत्या और पलायन से मिलता है.
ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता और औद्योगिक वस्तुओं की मांग कम हो रही है. चालू वित्त वर्ष के बजट में कल्याणकारी योजनाओं के आवंटन में कटौती से भी चिंताएं बढ़ी हैं. उम्मीद है कि नये आंकड़ों की रोशनी में सरकार जरूरी कदम उठायेगी, क्योंकि ग्रामीण भारत की आय में वृद्धि के बिना देश के विकास की कोशिशें सफल नहीं हो सकती हैं.

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