एक सम्यक विकास ही समाधान
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार स्मार्ट सिटी भी समय की जरूरत है, पर गांवों के विकास की कीमत पर नहीं. एक सम्यक विकास ही हमारी समस्याओं का समाधान है. यह काम नारों से नहीं होगा. सबका साथ, सबका विकास का उद्देश्य हमारी नीतियों में झलकना चाहिए. देश की विदेशमंत्री पर एक ‘भगोड़े अपराधी’ की सहायता का […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
स्मार्ट सिटी भी समय की जरूरत है, पर गांवों के विकास की कीमत पर नहीं. एक सम्यक विकास ही हमारी समस्याओं का समाधान है. यह काम नारों से नहीं होगा. सबका साथ, सबका विकास का उद्देश्य हमारी नीतियों में झलकना चाहिए.
देश की विदेशमंत्री पर एक ‘भगोड़े अपराधी’ की सहायता का आरोप लगा है; देश के एक राज्य की मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में है; एक पश्चिमी राज्य के चार मंत्री कथित घोटालों के विवादों में घिरे हैं; एक अन्य राज्य में परीक्षाओं को लेकर चल रहे विवाद की आंच से सरकार झुलस रही है- ये सारे उदाहरण भाजपा-शासित प्रदेशों के हैं.
ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि संसद के मॉनसून सत्र में विपक्ष सरकार को लगातार मुश्किल में डाले रखेगा. जो महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में सदन में रखे जाने हैं, उनमें वह भूमि अधिग्रहण विधेयक भी है, जिसे सरकार पिछले सत्र में पारित नहीं करवा पायी थी. आसार जो बन रहे हैं, उनके संकेत तो यही हैं कि इस सत्र में भी शायद ही यह महत्वपूर्ण काम पूरा हो सके.
तमाम संगठनों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार अड़ी हुई है कि भूमि अधिग्रहण संबंधी परिवर्तित विधेयक पारित हो जाये. हालांकि, विरोध के चलते कुछ संशोधन सरकार मानने के लिए तैयार है, पर सहमति बन नहीं रही. बड़ा विरोध जिन दो मुद्दों पर है, उनका संबंध उन लोगों से है, जिनकी जमीन का अधिग्रहण होना है. साल 2013 के तत्संबंधी विधेयक में दो महत्वपूर्ण बातें थीं- पहली तो यह कि उन लोगों से सहमति ली जाये, जिनकी जमीन अधिगृहीत की जानी है और दूसरी, अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव को भी निर्णय का आधार बनाया जाये. ये दोनों बातें जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हैं. लेकिन, भाजपा सरकार को लगता है इनसे विकास का रास्ता रुकने की आशंका है! सवाल है, क्या सचमुच जनतंत्र और विकास परस्पर-विरोधी हैं?
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन की चाहे जो भी प्रणाली हो, उसमें केंद्रीय बात जनता का हित है. और सच्चाई यह भी है कि पिछले 68 वर्षो में विकास के सारे दावों के बावजूद आज भी देश का आम आदमी स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. ऐसा नहीं है कि विकास नहीं हुआ. बहुत कुछ हुआ है, पर विकास का लाभ जनता में बराबर-बराबर बंटा नहीं है.
देश की बहुसंख्यक जनता अभी भी अभावों में जी रही है. देश की अस्सी प्रतिशत संपत्ति देश के बीस प्रतिशत लोगों के पास है. देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, पर गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीनेवालों की संख्या कम नहीं हो रही. देश के विधायकों, सांसदों की संपत्ति हर पांच साल बाद दोगुनी-चौगुनी हो जाती है, पर जिनका प्रतिनिधित्व वे करते हैं, उनकी विवशताएं कम नहीं हो रहीं! स्पष्ट है, विकास की हमारी अवधारणा में ही कहीं कोई गड़बड़ है, विकास की हमारी कोशिशों में भी कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी है.
निस्संदेह विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण जरूरी है. सरकारी अनुमान के अनुसार, 2006 से लेकर 2013 के बीच विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए 60 हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन अधिगृहीत की गयी थी- इसमें से 53 प्रतिशत जमीन का अभी तक कोई उपयोग नहीं हुआ है. आजादी के बाद से लेकर अब तक विकास-कार्यो के नाम पर छह करोड़ लोगों को अपनी जमीन से हटाया गया था. इनमें से एक तिहाई को भी समुचित तरीके से पुनस्र्थापित नहीं किया गया है.
बेदखल होनेवालों में ग्रामीण, गरीब, छोटे किसान, मुछआरे, खानों में काम करनेवाले हैं. इनमें 40 प्रतिशत आदिवासी हैं और 20 प्रतिशत दलित. इसके साथ ही जुड़ा है यह तथ्य कि पिछले बीस वर्षो में देश में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. जानना यह भी जरूरी है कि हमारी 90 प्रतिशत के लगभग कोयला खदानें और 50 प्रतिशत के लगभग अन्य खानें आदिवासी इलाकों में है. स्पष्ट है, हमारे विकास के लिए सबसे ज्यादा कीमत यही चुकायेंगे. इसीलिए जरूरी है भूमि अधिग्रहण के काम में इनकी पूरी भागीदारी जरूरी है.
औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं को रोका नहीं जा सकता. विकास के लिए जरूरी हैं ये दोनों. पर कैसे देश की गरीबी और विकास की आवश्यकताओं में संतुलन बनाये रखा जा सके, इसके बारे में नीयत की ईमानदारी और नीति की पारदर्शिता का होना जरूरी है.
दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति में यही दोनों कम दिखाई देती हैं. इसीलिए राजनीति और राजनेताओं में जनता का भरोसा नहीं रहा. जनतंत्र स्वस्थ रहे, पनपे, इसकी पहली शर्त यह भरोसा है. इसलिए जरूरी है कि भूमि-अधिग्रहण के लिए कानून बनाते समय इन सभी संदर्भो को ध्यान में रखा जाये.
ध्यान में रखा जाये कि औद्योगिक विकास की अनिवार्यता को आम आदमी की जरूरतों से संतुलित करना होगा. उद्योग चाहिए, पर शर्त यह है कि हर हाथ को काम मिले; स्मार्ट सिटी भी समय की जरूरत है, पर गांवों के विकास की कीमत पर नहीं. एक सम्यक विकास ही हमारी समस्याओं का समाधान है. यह काम नारों से नहीं होगा. सबका साथ, सबका विकास का उद्देश्य हमारी नीतियों में झलकना चाहिए.