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क्योंकि वह मां किसी गरीब की थी!

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार कसाई ने रहस्य समझाया कि मैंने हर बकरे को अकेले में उसके कान में कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ कर सारे बकरे को हलाल करूंगा. इसीलिए ये सारे बकरे खुश हैं और बाड़े में पूरा अमन-चैन है. आजकल अखबार विज्ञापनों का सतरंगी नकाब ओढ़ कर आते हैं. प्रथम-द्वितीय […]

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
कसाई ने रहस्य समझाया कि मैंने हर बकरे को अकेले में उसके कान में कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ कर सारे बकरे को हलाल करूंगा. इसीलिए ये सारे बकरे खुश हैं और बाड़े में पूरा अमन-चैन है.
आजकल अखबार विज्ञापनों का सतरंगी नकाब ओढ़ कर आते हैं. प्रथम-द्वितीय पृष्ठ तो पूरी तरह रंगीन विज्ञापनों के हवाले हो ही गये हैं, तीसरे-चौथे पृष्ठ पर भी यदि समाचार के बदले किसी कंपनी का विज्ञापन दिखे, तो अचरज नहीं करना चाहिए. उपनिषद का वाक्य है- ‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य पिहितं मुखम्’. सत्य का मुंह सोने के पात्र से ढंका है. वैदिक ऋषि पूषन् से प्रार्थना करते हैं कि आप उस आवरण को हटाइये- ‘तस्मात् पूषन् अपावृणु’.
समाचार पत्रों में भी जीवन का सत्य स्वर्णिम विज्ञापनों से इस तरह आवृत होता है कि जब तक वह आप तक पहुंचे, तब तक उसका दम घुट चुका होता है. लीड समाचार की धार भोथरी हो चुकी रहती है. उसकी मारक क्षमता नष्ट हो गयी रहती है. लेकिन उनमें भी कुछ समाचार ऐसे होते हैं, जो आकार और हैसियत में छोटा होकर भी आपको विचलित कर देते हैं. ऐसा ही एक बेहद छोटा-सा समाचार उत्तराखंड की राजधानी का है, जिसे पढ़ कर मैं दिन भर उद्विग्न रहा. शायद वह आप तक न पहुंचा हो.
वह पेशे से राजमिस्त्री है और चूंकि उसकी जीविका दिहाड़ी पर निर्भर है, इसलिए उसके परिवार के लिए रोज कुआं खोदना, रोज पानी पीना नियति थी. उसकी मां अस्थमा और पथरी की मरीज तो थी ही, बाद में दिल की मरीज भी हो गयी.
प्रारंभिक रोगों का इलाज उसने किसी तरह पेट काट कर किया, मगर जब गंभीर रोग दस्तक देने लगे, तो उसने वर्ष 2013 में मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से एक लाख रुपये मदद की गुहार की. उसने स्थानीय विधायक के सहयोग से विधिवत् आवेदन किया और सारी अपेक्षित औपचारिकताएं पूरी कीं. उसके बाद से वह विभिन्न विभागों की परिक्रमा करता रहा और जब कुछ कहीं से कोई आशा की किरण नहीं दिखी, तब वह उधर की ओर पीठ फेर कर मां की यथासंभव सेवा-शुश्रूषा करता रहा.
उसने सारे सरकारी चिकित्सालयों की खाक छानी, मगर किसी ने उसकी मां के इलाज के लिए सार्थक पहल नहीं की. इधर-उधर से लगभग डेढ़ लाख रुपये का कर्ज लेकर मां का इलाज कराया, मगर उसे बचा नहीं सका और मार्च, 2014 तक आते-आते मां ने दम तोड़ दिया. यही होना भी था, क्योंकि वह गरीब की मां थी. आज की महंगी चिकित्सा के सामने कौन गरीब टिक सकता है?
लेकिन, कुछ दिन पहले उस राजमिस्त्री को राज्य के सचिवालय से एक पत्र मिला है, जिसमें उसे यह ‘सुखद’ सूचना दी गयी है कि उसकी मां के इलाज के लिए पांच हजार की राशि स्वीकृत हुई है. चेक बन कर तैयार है. वह संतोषजनक प्रमाण देकर ले जाये. राजमिस्त्री ने यह कह कर चेक लेने से मना कर दिया कि जिस मां के इलाज के लिए मैंने मदद की गुहार की थी, वह तो चल बसी. अब लेकर क्या करूंगा?
इस तरह की घटनाएं होती ही रहती हैं; कभी समाचार नहीं बनतीं. अगर बनी भी, तो कहीं कोने-अंतरे डाल दी जाती है कि किसी की नजर पड़े, न पड़े. क्या इसका समाधान डिजिटल इंडिया है? मुङो तो नहीं लगता, क्योंकि यह सवाल सिस्टम की संवेदनशीलता से जुड़ा हुआ है. सिस्टम में जो बैठा हुआ है, वह मान कर चलता है कि यह मां उसकी नहीं है.
उसकी होती तो सारी कायनात उसके कदमों पर होती. सत्ता में जो बैठे हैं, वे अपना अतीत भूल जाते हैं. नवगठित राज्यों में इसके प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि जो आदमी दो जून की रोटी मुश्किल से जुटा पाता था, वह दस साल में सत्ता की सीढ़ियां चढ़ता हुआ अरबपति बन गया है. उसकी बीसो उंगलियां घी मैं हैं. क्या कहने!
इस घटना के संदर्भ में यदि बात करें, तो क्या सरकारी महकमे ने कभी सोचा कि जिस गरीब ने मां के इलाज के लिए मदद मांगी है, उसे कितने दिन में मदद मिल जानी चाहिए? और क्या उसने यह भी सोचा कि जो एक लाख इलाज के लिए मांग रहा है, उसे पांच हजार रुपये की स्वीकृति देने के पीछे कौन-सा ‘विवेक’ है? फिर इतनी जांच-पड़ताल किस काम की कि उसके पूरा होते-होते जिंदगी ही सिमट जाये. जो नागरिक इस देश के असली स्वामी हैं, उनके प्रति सरकारी मशीनरी के मन में यह अविश्वास, यह संदेह क्या यह नहीं सिद्ध करता है कि हमारे देश में आज भी उपनिवेशवादी मानसिकता के लोग ही शासन चला रहे हैं? कब आयेगा वह दिन, जब लोग अपनी सरकार में अपनत्व और संवेदनशीलता प्रवाहित होते देखेंगे? आखिर मां तो मां है, चाहे कपूत की हो या सपूत की, गरीब की हो या अमीर की.
अपने देश में लोकतंत्र की जो दुरवस्था है और उसे सामान्यजन जिस स्थितप्रज्ञ भाव से ग्रहण कर रहा है, उसे देख कर एक कहानी याद आती है. एक बार एक कसाई के पास उसका दोस्त मिलने आया. उसने देखा कि एक बाड़े में ढेर सारे बकरे कैद हैं और आपस में मस्ती से खेल रहे हैं. कसाई उस बाड़े से एक-एक करके बकरे को बाहर निकाल कर उसे काट रहा है, और उसका मांस बेच रहा है.
दोस्त को यह देख कर बड़ी हैरानी हुई कि सारे बकरे अपने साथियों को एक-एक कर कटते देख रहे हैं, फिर भी खुश हैं और एक-दूसरे के साथ खेल रहे हैं. दोस्त ने कसाई से पूछा कि इसका क्या कारण है?
कसाई ने रहस्य समझाया कि मैंने हर बकरे को अकेले में उसके कान में कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ कर सारे बकरे को हलाल करूंगा. तुम्हें कुछ नहीं होगा. तुम निश्चिंत रहो. इसीलिए ये सारे बकरे खुश हैं और बाड़े में पूरा अमन-चैन है.
कुछ ऐसी ही गलतफहमी यहां भी हर आम आदमी को है.
हर आदमी को लगता है कि इस व्यवस्था पर मेरी पकड़ है, पहुंच है, इसलिए बाकी लोगों को परेशानी होगी, मुङो नहीं. सरकार और समाज के शक्तिशाली वर्ग हमें इसी प्रकार की गलतफहमी में डाल रखते हैं. हम अपने बाड़े में बेपरवाह खड़े हैं और एक-एक कर अपने साथियों को हलाल होते देख रहे हैं, फिर भी खुश हैं और अपनी दुनिया में मस्त हैं.
इस प्रकार की घटनाएं देश के हर भाग में हो रही हैं, जहां शासन की असंवेदनशीलता के कारण किसी की मां मरती है, किसी का पिता, किसी की पत्नी तो किसी की संतान. जिस पर बीतता है, वही रोता-चिल्लाता है, बाकी सभी तमाशबीन बने रहते हैं- पद्मपत्रमिवाम्भसा. कमल के पत्ते की तरह, पानी से बिना भींगे-
उनका मन आज हो गया, पुरइन पात है।
भिंगो नहीं पाती, यह पूरी बरसात है।।

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