इस विकास का विद्रूप भी देखिए!
।।चंदन श्रीवास्तव।। (एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस) कोई चीज आंखों के आगे हो फिर भी दिखाई न दे तो इस स्थिति को क्या कहेंगे? क्या नजर का खोट? बात विचित्र चाहे जितनी लगे, पर यह सच है कि कभी चीजें नजर के खोट से दिखाई नहीं देती, तो कभी नजरिये के खोट से. यह नजरिये का ही […]
।।चंदन श्रीवास्तव।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
कोई चीज आंखों के आगे हो फिर भी दिखाई न दे तो इस स्थिति को क्या कहेंगे? क्या नजर का खोट? बात विचित्र चाहे जितनी लगे, पर यह सच है कि कभी चीजें नजर के खोट से दिखाई नहीं देती, तो कभी नजरिये के खोट से. यह नजरिये का ही खोट है कि बीते तीन दशकों में इस देश में आदमी-आदमी के बीच एक और ग्यारह का फर्क पड़ गया, लेकिन देश की राजनीति उसे देख नहीं पायी. देख पाती तो .डेवलपमेंट विथ ह्यूमन फेस. (मानवीय चेहरे वाला विकास) का मुहावरा विजयी साबित नहीं होता. विकास का विद्रूप नजर आता और तब शायद कोई सूरत निजात की भी बनती!
.डेवलपमेंट विथ ह्यूमन फेस.- बीते तीन दशकों का विजयी मुहावरा है यह. तभी तो प्रधानमंत्री के साथ अमेरिका पहुंचे सलमान खुर्शीद वहां एक राजनीतिक मंच पर दुनिया के नाम भारत का संदेश सुनानेवाली शैली में बोले कि- .भूख और गरीबी उन्मूलन होना चाहिए एजेंडा में शीर्ष पर.. सलमान खुर्शीद जिस समय दुनिया को यह सीख दे रहे थे, लगभग उसी समय मनमोहन सिंह की कैबिनेट के एक और मंत्री जयराम रमेश भारत का ग्रामीण विकास रिपोर्ट (2012-13) पेश कर रहे थे. इस रिपोर्ट के निष्कर्षों से साबित हो रहा था कि अपने एजेंडे में गरीबी को शीर्ष पर रख कर चलनेवाली राजनीति ने भारत में गरीब को तो गर्त में डाल रखा है. ग्रामीण विकास रिपोर्ट के तथ्य बाकी बातों के साथ यह भी कह रहे थे कि देश के गंवई हिस्से में हर पांच घर में एक घर बिजली, पेयजल व शौचालय की सुविधा से वंचित है. ग्रामीण इलाके में सौ में औसतन 18 घर ही ऐसे हैं जिन्हें ये तीनों सुविधाएं हासिल हो पायी हैं.
आप कह सकते हैं कि इसी वजह से तो .विकास. की राह पर चलनेवाली राजनीति जरूरी है. लेकिन यह राजनीति आदमी-आदमी के बीच एक और ग्यारह का फर्क पैदा करती हो तो? सोचें कि ग्यारहवें पायदान पर खड़े आदमी की नजर में पहले पायदान पर खड़े आदमी की हैसियत क्या होगी? क्या यहां यह कहना जरूरी है कि अटारी जितनी ऊंची हो, उसके झरोखे से झांकनेवाला गली के आदमी को उतना ही बौना समझता है. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स का अध्ययन (टॉप इंडियन इनकम : 1922-2000) कहता है कि विकास की राह चलने वाली राजनीति ने बीते तीन दशकों में चंद रईसों को इतनी ऊंची अटारी पर बिठा दिया है कि उसके आगे शेष भारत का कद बौना बन गया है.
इस अध्ययन के अनुसार 1981 से 2000 के बीच भारत के शीर्षस्थ धनिकों की कमाई सालाना 11.9 फीसदी की दर से बढ़ी, जबकि इसी अवधि में शेष भारत के परिवारों का सालाना उपभोग-खर्च महज 1.5 फीसदी की दर से बढ़ा. यह आदमी-आदमी के बीच एक और ग्यारह का फर्क डालनेवाला ही तो विकास है! काश! अर्थशास्त्र के जानकार जयराम रमेश की नजर इस तथ्य पर गयी होती. तब शायद वे देख पाते कि भारत के गांवों के घर बिजली-पानी और शौचालय की सुविधा से इसलिए भी वंचित हैं, क्योंकि उनके पास इस उपभोग के मद में खर्च करने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं. वे देख पाते कि विकास की राजनीति की धारा कैसे कुछ लोगों को धन के महासमुद्र की ओर ठेल रही है और बाकी को किनारे पर पटक कर उनकी आंखों में बालू झोंक रही है.
जयराम रमेश इस बात पर खुश थे कि भारत के गांव बदल रहे हैं, वे जीविका के लिए सिर्फ खेती पर निर्भर नहीं रहे, क्योंकि गांवों में गैर-खेतिहर काम करके जीविका कमानेवाले लोगों की तादाद में इजाफा हुआ है. ग्रामीण विकास रिपोर्ट की मानें तो 1993 में भारत के गंवई इलाके में गैर-खेतिहर कामों से जीविका कमानेवाले लोगों की तादाद 32 फीसदी थी, जो 2009-10 में बढ़ कर 42 फीसदी हो गयी. लेकिन, इसमें खुश होनेवाली कौन सी बात है? खेती को ऐतिहासिक रूप से पिछड़ी जीवनशैली का परिचायक समझनेवाले लोग भले मानें कि भारत के गांवों में गैर-खेतिहर कामों से जीविका कमानेवाले लोगों की तादाद में इजाफा होना उनकी आर्थिक-सामाजिक प्रगति का सूचक है, पर सच तो यह है कि गांवों में गैर-खेतिहर कामों से जीविका कमानेवाले लोगों की सर्वाधिक संख्या दिहाड़ी मजदूरी खटनेवाले लोगों की है, उन लोगों की जो बस इतना भर कमा पाते हैं कि सांझ को खायें तो सबेरे की सोच करें.
जाहिर है, जितना बड़ा सच यह है कि हमारे देश में विकास तेज गति से हो रहा है, उससे कहीं बड़ा सच है कि इस विकास चेहरा विद्रूप है. इसी चेहरे का एक सबूत यह भी है कि वल्र्ड वेल्थ रिपोर्ट-2013 के मुताबिक पिछले एक साल में महाधनियों (सुपर रिच) की संख्या बढ़ने के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है. इन महाधनियों के आगे शेष भारत बौना नजर आये- क्या यही सपना संजोया था हमने!