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निम्न स्तर पर है खुफिया तैयारी
पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक यदि विमान को उड़ान भरने से रोक लिया जाता, तो अपहरणकर्ताओं से समझौते के लिए समय मिल जाता. हालांकि, इसकी भी कोई गारंटी नहीं थी कि अगर विमान को छोड़ने की अनुमति मिल जाती, तो बंधकों की जानें बच ही जाती. सही रणनीतिक बात यह होती कि थोड़ा […]
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
यदि विमान को उड़ान भरने से रोक लिया जाता, तो अपहरणकर्ताओं से समझौते के लिए समय मिल जाता. हालांकि, इसकी भी कोई गारंटी नहीं थी कि अगर विमान को छोड़ने की अनुमति मिल जाती, तो बंधकों की जानें बच ही जाती.
सही रणनीतिक बात यह होती कि थोड़ा समय लिया जाता और हवाई पट्टी तुरंत बंद कर दी जाती और बंधकों की सुरक्षित रिहाई के लिए अपहरणकर्ताओं से समझौते के लिए संपर्क किया जाता.
राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा किस हद तक पक्षपाती राजनीति का बंधक बन सकता है? यही वह सवाल है, जो एक नयी किताब ‘कश्मीर : द वाजपेयी इयर्स’ पर प्रतिक्रियास्वरूप सामने आया है.
इसे गुप्तचर संस्था रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने लिखा है. वर्ष 1999 में दुलत रॉ के चीफ थे, जब आइसी-814 विमान अपहरण की घटना घटी थी. उन्होंने दावा किया है कि इस समस्या से निपटने में गड़बड़ी हुई थी. इस पर्दाफाश पर कांग्रेस पार्टी ने भाजपा की अगुआई वाली एनडीए के तत्कालीन नेताओं और खासकर नीति-शून्यता (पॉलिसी पारालिसिस) के लिए फटकारा है. पॉलिसी पारालिसिस की स्थिति तत्कालीन उपप्रधानमंत्री एलके आडवाणी और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण पैदा हुई थी. जैसी कि उम्मीद थी, भाजपा ने प्रतिक्रिया व्यक्त की और इस किताब को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट के फिर से सुर्खियों में आने की कोशिश है.
भाजपा ने आश्चर्य व्यक्त किया कि जो घटना 16 वर्ष पहले घटी, उस पर बहस क्यों करनी चाहिए. भाजपा ने कहा कि कांग्रेस इस पर राजनीति कर रही है, जबकि हकीकत यह है कि कांग्रेस भी उस फैसले में साङोदार थी, कि बंधक बनाये गये यात्रियों की जान बचाने के लिए जो भी उपाय मुमकिन हो, किया जाना चाहिए.
24 दिसंबर, 1999 को शाम 4:53 बजे इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट आइसी-814 ने काठमांडो से नयी दिल्ली के लिए उड़ान भरी थी. कुछ ही मिनटों बाद पांच पाकिस्तानियों ने इसका अपहरण कर लिया. अपहरणकर्ताओं का सरगना इब्राहिम अतहर था. वह हरकत-उल-अंसार और हरकत-उल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकी संगठनों के सबसे हिंसक और निर्मम नेताओं में से एक मौलाना मसूद अजहर का भाई था. शाम 4:56 बजे दिल्ली को अपहरण की सूचना मिली.
शाम सात बजे अमृतसर एयरपोर्ट पर विमान उतरा. एयरपोर्ट के अधिकारियों को ऊपरी तौर पर निर्देश था कि विमान को उड़ने न दिया जाये. मगर विमान उड़ान भरने में कामयाब हो गया और पाकिस्तान के लाहौर एयरपोर्ट पर उतरा. यहां इस विमान में ईंधन भरा गया. रात साढ़े दस बजे विमान लाहौर से उड़ा. पाइलट को काबुल की ओर जाने को कहा गया. चूंकि काबुल में रात में विमान उतरने की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए 25 दिसंबर को रात 1:32 बजे विमान दुबई एयरपोर्ट पर उतरा. 26 दिसंबर की सुबह इसने फिर उड़ान भरी और थोड़ी देर बाद तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान के कंधार एयरपोर्ट पर उतर गया.
31 दिसंबर की शाम तक यह विमान यहीं खड़ा रहा, जब तक कि भारत सरकार ने तीन दुर्दात आतंकवादियों- मुश्ताक जरगर, उमर शेख और खतरनाक मसूद अजहर- को रिहा नहीं कर दिया. इन आतंकियों को स्वयं विदेश मंत्री जसवंत सिंह भारतीय विमान में लेकर कंधार गये. सभी यात्री बचा लिये गये. एक यात्राी रुपिन कात्याल, जिसकी गर्दन चीर दी गयी थी, को भी सुरक्षित बचा लिया गया. तालिबान ने अपहरणकर्ताओं को रिहा कर दिया. वह पाकिस्तान चले गये. फिर से भारतीय लोगों की हत्या का काम जारी रखने के लिए.
इन तथ्यों को फिर से याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि नौजवानों की एक पीढ़ी इन तथ्यों से बिल्कुल अनजान है. जिस तरह से हमने अपहरण से निपटने के मामले में काम किया, उसमें गड़बड़ी थी, इस सवाल ने राजनीतिक गरमी पैदा कर दी है. मुझे लगता है कि जब अपहरण के बाद इत्तफाक से अमृतसर में विमान उतरा, तब हमारी प्रतिक्रिया कमजोर और अप्रभावी थी, इसलिए विमान को लाहौर के लिए उड़ान भरने की अनुमति दे दी गयी. इस निष्कर्ष का मतलब पक्षपाती राजनीतिक प्रतिक्रिया को और भड़काना नहीं है. यह निष्कर्ष इसलिए कि हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी सुरक्षा का जायजा लें और यह विश्लेषण करें कि हमसे क्या गलतियां हुईं, ताकि अगली बार हम और मुस्तैद रह सकें.ईश्वर इस तरह के संकटों को रोके.
नि:संदेह ऐसे मामलों में आलोचनात्मक रुख अख्तियार करना आसान होता है. मगर पूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित जैसे सहानुभूतिपूर्ण नजरिया रखनेवाले व्यक्ति को भी लगता है कि आमतौर पर सरकार ने वैसे ही काम किया, जो वह कर सकती थी. वह महसूस करते हैं कि ‘कुछ निष्कर्ष अनिवार्य हैं.’ वर्ष 2002 में प्रकाशित अपनी किताब ‘इंडिया एंड पाकिस्तान इन वार एंड पीस’ में वह लिखते हैं- ‘दिल्ली और अमृतसर के अधिकारियों के बीच समय और गति के मामले में समन्वय की कमी थी. अमृतसर में विमान उतरने के बाद रनवे को तुरंत बंद नहीं किया गया. नेशनल सिक्योरिटी गार्ड के कमांडो पर्याप्त गति के साथ कार्रवाई के लिए फौरन रवाना नहीं हुए. बिना किसी प्रभावी प्रतिरोध को ङोले अपहरणकर्ताओं को उड़ान भरने के लिए पर्याप्त समय मिल गया.’
उपरोक्त तथ्यों में से अधिक बातों के साक्ष्य दुलत के विवरण में हैं. दिल्ली के निर्देशों में न सुस्पष्टता थी और न ही दृढ़ता. पंजाब के पुलिस महानिदेशक अपनी ओर से कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते थे. संशयात्मक स्थिति बनी रही. अपहरणकर्ताओं को भी अपनी इतनी अच्छी किस्मत होने का अंदाजा नहीं था.
एक तर्क दिया गया है कि बंधकों की सुरक्षा देर से लिये गये निर्णय की मुख्य बाधा थी. यदि विमान को उड़ान भरने से रोक लिया जाता, तो अपहरणकर्ताओं से समझौते के लिए समय मिल जाता. इन सबके अलावा, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी कि अगर विमान को छोड़ने की अनुमति मिल जाती, तो बंधकों की जानें बच ही जाती. सही रणनीतिक बात यह होती कि थोड़ा समय लिया जाता और हवाई पट्टी तुरंत बंद कर दी जाती और बंधकों की सुरक्षित रिहाई के लिए अपहरणकर्ताओं से समझौते के लिए संपर्क किया जाता.
त्वरित और प्रभावी सुरक्षात्मक कार्रवाई करनेवाला कोई और देश होता, तो अपनी अच्छी किस्मत का लाभ उठाता और अपनी ही सीमा के अंदर के एयरपोर्ट पर अपहरित विमान को उतरने के लिए बाध्य करता.
यह एक सामान्य सच है और इसे पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकारता हूं कि इसे एक राजनीतिक खेल के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि दरअसल हुआ क्या था, उसे एक वस्तुगत मूल्यांकन के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि भविष्य के लिए सीख ली जा सके. देर से ही सही, दुलत की किताब को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.
यह सच्चाई है कि चाहे जो भी दल सत्ता में रहा हो, हमारी खुफिया और सुरक्षात्मक तैयारी अभी भी बहुत ही निम्न स्तर पर है, और इस स्थिति को दुरुस्त करने के लिए अभी भी बहुत थोड़ा ही काम किया जा रहा है.
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