जब बोल ही दिये तो पूरा सच बोलते
राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर कश्मीर की एक खास बात है कि यहां किसी भी हत्या को पाक के सिर मढ़ा जा सकता है. इसलिए उन हत्याओं के पीछे कौन था, इसका कभी पता नहीं लग सकता. जब दुलत साहब इस प्रसंग पर बोलना शुरू हुए, तो मुङो लगा कि शायद कुछ पता चलेगा, […]
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
कश्मीर की एक खास बात है कि यहां किसी भी हत्या को पाक के सिर मढ़ा जा सकता है. इसलिए उन हत्याओं के पीछे कौन था, इसका कभी पता नहीं लग सकता. जब दुलत साहब इस प्रसंग पर बोलना शुरू हुए, तो मुङो लगा कि शायद कुछ पता चलेगा, लेकिन..
पिछले दिनों पूर्व रॉ प्रमुख एएस दुलत ने कश्मीर को लेकर कई खुलासे किये.
इनमें अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन (अब दिवंगत) द्वारा 2002 के चुनावों में मदद का आश्वासन, हिजबुल मुजाहिदीन के सुप्रीम कमांडर सैयद सलाहुद्दीन (मोहम्मद यूसुफ शाह) के बेटे का श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन, हिजबुल मुजाहिदीन के चीफ कमांडर मजीद डार के चुनाव में उतरने की तैयारी, कश्मीर में राजनीतिकों, आतंकियों और अलगाववादियों को पैसे से मदद आदि बातें कहीं गयीं. दुलत साल 2000 तक रॉ के प्रमुख थे और उसके बाद 2004 तक प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष सलाहकार. उनकी किताब का नाम है ‘कश्मीर : द वाजपेयी इयर्स’. इसी किताब के लांच होने से ठीक पहले दुलत ने अपनी किताब की पब्लिसिटी के लिए ये सब बातें कही.
इससे उनकी किताब की पब्लिसिटी तो हुई, लेकिन कई ऐसी बातें सामने आयीं, जो अब तक पता तो बहुत लोगों को होती थीं, लेकिन उनका कोई प्रमाण नहीं होता था. लिहाजा ये बातें गॉसिप के स्तर से आगे आमजन के बीच नहीं जा पायीं. लेकिन अब ये सब ऑफिशियल हो गया है, तो पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या दुलत को इस तरह की जानकारियां सार्वजनिक करनी चाहिए थीं?
और, दूसरा सवाल यह है कि यदि उन्हें जानकारियां सार्वजनिक करनी ही थीं, तो आधी-अधूरी क्यों की? मुङो यह किताब अब तक नहीं मिल सकी है, लेकिन दुलत ने कश्मीर को लेकर जितनी बातें सार्वजनिक की हैं, उनमें यदि कोई हीरो बन कर सामने आ रहे हैं, तो वह हैं फारूक अब्दुल्ला. और यदि सबसे ज्यादा नुकसान किसी को हुआ, तो वे हैं मुफ्ती मोहम्मद सईद, उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती और मीरवाइज उमर फारूक. लेकिन क्या सच्चाई यही है?
पहले बात करते हैं नवंबर 2000 में वाजपेयी सरकार द्वारा आतंकियों के खिलाफ कश्मीर में घोषित एकतरफा सीजफायर की. रमजान का महीना शुरू होनेवाला था और मुङो खबर मिली कि केंद्र सरकार एकतरफा सीजफायर पर विचार कर रही है. सूत्रों से पता चला कि खबर सिर्फ इतनी नहीं है. खबर यह है कि सीजफायर की घोषणा का सकारात्मक प्रत्युत्तर हिजबुल मुजाहिदीन के चीफ कमांडर मजीद डार की ओर से आयेगा और फिर सैयद सलाहुद्दीन कश्मीर में प्रकट होकर उसकी तस्दीक करेंगे.
इसके लिए सलाहुद्दीन को मुजफ्फराबाद से इस तरफ लाया जायेगा. मेरे सूत्र सरकारी नहीं थे, बल्कि हिजबुल के भीतर के थे. हिजबुल के सूत्रों का उस समय कहना था कि सैयद सलाहुद्दीन को आइएसआइ ने कैद कर रखा है और उसे अपने हितों के हिसाब से इस्तेमाल करती है. सैयद सलाहुद्दीन ठगा हुआ महसूस कर रहा है और वह वहां से निकलना चाहता है. भारतीय एजेंसियों ने उसे भारत लाने की योजना बना रखी है.
रमजान के पहले दिन सीजफायर घोषित किये जाने की खबर उस समय हमने ‘अमर उजाला’ में ब्रेक की थी. खबर और उसके सूत्रों की विश्वसनीयता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि खबर छपने के बाद भारत सरकार ने इसका खंडन करने की जगह सीजफायर की ही घोषणा की.
खैर उस समय सैयद सलाहुद्दीन एलओसी क्रॉस नहीं कर सका और निर्धारित कार्यक्रम बाधित हो गया. लेकिन यह कोशिशें बहुत दिनों तक चलीं. फरवरी 2001 में एकतरफा सीजफायर को तीन माह के लिए बढ़ा दिया गया, लेकिन कुछ सिरे नहीं चढ़ पाया, क्योंकि सैयद सलाहुद्दीन का रुख बदल गया. अलबत्ता मजीद डार लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने को राजी था.
सैयद सलाहुद्दीन ने आइएसआइ के इशारे पर इंजीनियर जमान को हिजबुल का चीफ कमांडर बना दिया और मजीद डार को पाकिस्तान पहुंचने का निर्देश दिया, लेकिन डार पाकिस्तान नहीं गया. ये सब खबरें उस समय अखबारों में आयी थीं. इस बीच, मजीद डार भारतीय एजेंसियों के संपर्क में था और उसकी पूरी तैयारी पॉलिटिकल संगठन बनाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने की थी. उस समय सरकारी सूत्रों का कहना था कि डार और उसके खास लोगों को एजेंसियों की तरफ से कवर मिला हुआ है.
डार की हिजबुल पर पकड़ खत्म करने के लिए उसे संगठन से ही निकालने का फरमान जारी कर दिया गया और साथ ही डार के विश्वस्त कमांडरों को हटा कर नये कमांडर नियुक्त कर दिये गये. हटाये जानेवाले आतंकियों में सेंट्रल कश्मीर का कमांडर जफर-उल-फतह और साउथ कश्मीर का कमांडर डॉ असद यजदानी शामिल था. डार की पकड़ का आलम यह था कि जिस सात सदस्यीय कमान काउंसिल की बैठक में डार को निकालने का फैसला किया गया था, उसके दो सदस्यों ने बैठक का बहिष्कार किया, दो ने डार को और समय दिये जाने की वकालत की और सलाहुद्दीन व दो अन्य सदस्यों ने ही डार को निकाले जाने का समर्थन किया.
कश्मीर में उस समय माहौल यह बन रहा था कि केंद्र सरकार समय से पहले विधानसभा चुनाव करवाने की घोषणा कर सकती है. लेकिन यह योजना भी सिरे न चढ़ सकी और कश्मीर की वे ताकतें सफल हो गयीं, जिनके हित इस योजना से प्रभावित होते दिखायी दे रहे थे और एक-एक कर तीनों लोग मार डाले गये.
मजीद डार की हत्या 23 मार्च, 2003 को सोपोर में हुई. इससे पहले, वरिष्ठ हुर्रियत नेता अब्दुल गनी लोन से भी उम्मीद बंध रही थी कि वे चुनावी प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका अदा करेंगे. दुलत ने इसका जिक्र किया है.
लेकिन, चुनाव से काफी पहले 21 मई, 2001 को अब्दुल गनी लोन की श्रीनगर में हत्या कर दी गयी. कश्मीर की एक खास बात है कि यहां किसी भी हत्या को पाकिस्तान के सिर मढ़ा जा सकता है. इसलिए इन हत्याओं के पीछे कौन था, इसका कभी पता नहीं लग सकता. जब दुलत साहब इस प्रसंग पर बोलना शुरू हुए, तो मुङो लगा कि शायद कुछ पता चलेगा. लेकिन, निराशा ही हाथ लगी. एक बार पहले भी मैं इस कॉलम में एक वाकया शेयर कर चुका हूं और उसे यहां फिर शेयर कर रहा हूं.
साल 2002 के विधानसभा चुनाव के दौरान मैंने दो अलगाववादी नेताओं से पूछा कि मुफ्ती (सईद और महबूबा) के चुनाव जीतने से तो उनकी (अलगाववादियों) तहरीक को ताकत मिलेगी? जानते हैं, जवाब क्या मिला? दोनों नेताओं ने कहा कि मुफ्ती हमारे लिए खतरा हैं. मैंने पूछा क्यों, तो जवाब मिला कि फारूक ही हमारे लिए मुफीद हैं.
फिर पूछा क्यों, तो जवाब मिला कि फारूक साहब इज इंडियन बाय कंपल्सन और मुफ्ती इज इंडियन बाय कनविक्शन. दुलत साहब ने जब यह कहना शुरू किया कि महबूबा के हिजबुल से संबंध थे, तो मुङो लगा कि शायद वे एजेंसियों की पूरी योजना का खुलासा करेंगे, लेकिन अधूरा सच ही सामने आया. (मीरवाइज की बात अगले किसी मौके पर).