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गरीबी पर विश्व बैंक का ज्ञान

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, गरीबी सिर्फ धनाभाव भर का मामला नहीं है, बल्कि एक मानसिक दशा भी है. रोजमर्रा की जिंदगी में गरीबी से जूझता हुआ व्यक्ति दिमागी कूवत में ही इतना कमजोर होता है कि वह अपनी आर्थिक बेहतरी के बारे में ठीक से सोच ही नहीं पाता. ‘विज्ञान वरदान या अभिशाप’- […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 9, 2015 8:59 AM

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, गरीबी सिर्फ धनाभाव भर का मामला नहीं है, बल्कि एक मानसिक दशा भी है. रोजमर्रा की जिंदगी में गरीबी से जूझता हुआ व्यक्ति दिमागी कूवत में ही इतना कमजोर होता है कि वह अपनी आर्थिक बेहतरी के बारे में ठीक से सोच ही नहीं पाता.

‘विज्ञान वरदान या अभिशाप’- अब से कोई 25 साल पहले अविभाजित बिहार के स्कूलों में इसी शीर्षक से बच्चों के बीच वाद-विवाद के मुकाबले करवाये जाते थे. मुकाबले की निगरानी के लिए बैठा सदन तय कर देता था कि कोई भी विद्यार्थी विज्ञान को वरदान या अभिशाप साबित करने में बीच का रास्ता नहीं ले सकता. बीच का रास्ता तो हेडमास्टर साहब के लिए होता था, जो विजयी करार दिये गये छात्रों के बीच इनाम बंटते वक्त बताते कि विज्ञान न तो वरदान है, न ही अभिशाप, वह तो एक शक्तिमात्र है. यह इंसान पर निर्भर है कि वह विज्ञान का इस्तेमाल मनुष्य की भलाई के लिए करे या फिर विज्ञान की शक्ति से मनुष्य के संहार का काम ले. 25 साल पहले ‘विज्ञान वरदान या अभिशाप’ शीर्षक से होनेवाली प्रतियोगिता के पुरस्कार वितरण समारोह में बीच का रास्ता लेनेवाले हेडमास्टर साहब से अब यह कहने का मन जरूर होता है कि मास्साब! विज्ञान को शक्तिमात्र समझना एक भूल है. गुरुजी, आप जिस विज्ञान को शक्तिमात्र समझ रहे हैं, उसने बीसवीं सदी में अपने को एक संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया है. वरदान या अभिशाप होने का प्रश्न किसी शक्ति के बारे में उठाया जा सकता है, लेकिन संस्कृति के बारे में नहीं, क्योंकि संस्कृति एक मनोगत सत्ता के रूप में स्वयं ही तय करती है कि किस बात को ज्ञान कहा जायेगा, उस ज्ञान का क्या उपयोग किया जायेगा और इसके अच्छे-बुरे होने के बारे में क्या निर्णय किया जायेगा.

विज्ञान की इसी संस्कृति ने सिखाया है कि कुछ लोग अविकसित हैं और उनका विकास करना जरूरी है. विज्ञान की यही संस्कृति सिखाती है कि जिन लोगों का विकास किया जाना है, उनके व्यवहारों का अध्ययन करना होगा ताकि व्यवहारों के विशिष्ट दोष देख कर उनको दूर करने के लिए सरकारी नीति और कार्यक्रम बनाये जा सकें. और, इस सिखावन के बीच आदमी सोच ही नहीं पाता कि किसी विराट झूठ को परोसा जा रहा है या कह लें कि मानव-जाति और उसकी विकास-परंपरा के अधिकांश के बारे में यह सिखावन भयावह हिंसा का कोई यत्न भी हो सकती है. इसे परखना हो तो हाल में आयी दो रिपोर्टो को आस-पास रख कर परखने की कोशिश कीजिए. पहली रिपोर्ट सामाजिक, आर्थिक एवं जातिगत जनगणना की है. इस रिपोर्ट के तथ्यों को लेकर अखबारों में बड़ी छातीकूट हाय-हाय मची है कि विकासशील भारत में आजादी के छह दशक बाद भी 73 प्रतिशत परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और इन ग्रामीण परिवारों में कोई भी बालिग आदमी महीने में पांच हजार से ज्यादा की आमदनी नहीं जुटा पाता. पांच हजार से ज्यादा की मासिक आमदनी ज्यादातर ग्रामीण परिवार जुटा भी नहीं सकते, क्योंकि आधे से ज्यादा यानी 51 प्रतिशत ग्रामीण परिवार दिहाड़ी मजदूरी के आसरे हैं.

सवाल करें कि विज्ञान की संस्कृति को जीवन की एकमात्र वैध संस्कृति मान कर चलनेवाली दुनिया एक ऐसे ग्रामीण भारत के बारे में क्या सोचती और समाधान विचारती होगी, जहां तकरीबन 30 प्रतिशत ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं और 13 फीसदी परिवार घास-फूस, टाट-टप्पड़ के बने एक कमरे के मकान में रहते हों? विज्ञान की संस्कृति पर चलनेवाली संस्थाओं की राय नॉलेज इकोनॉमी कहलाने को आतुर भारत नाम के देश के ग्रामीण अंचलों के बारे में क्या होगी, जहां लगभग एक चौथाई (23 प्रतिशत) ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जिनमें 25 साल या इससे ज्यादा उम्र का कोई भी व्यक्ति कायदे से साक्षर नहीं बन पाया है?

दीन-गरीब ग्रामीण भारत के बारे में राय बताने का काम विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट करती है. इस रिपोर्ट का नाम है- ‘माइंड, सोसायटी एंड विहेवियर’ और वैज्ञानिकता की दावेदारी से भरपूर ढेर सारे अध्ययनों के हवाले से कहा गया है कि अगर कोई गरीब है, तो इसका दोष व्यवस्था में कम और गरीब व्यक्ति के सोच-विचार में ज्यादा है. इस रिपोर्ट में एक से ज्यादा जगहों पर बताया गया है कि गरीबी सिर्फ रुपये-पैसे के अभाव भर का मामला नहीं है, बल्कि एक मानसिक दशा भी है. रोजमर्रा की जिंदगी में गरीबी से जूझता हुआ व्यक्ति दिमागी कूवत में ही इतना कमजोर होता है कि न तो अपनी आर्थिक बेहतरी के बारे में ठीक से सोच पाता है और ना ही इसके लिए सही फैसले कर पाता है.

रिपोर्ट तर्क देती है कि गरीबी के दुष्चक्र में वह वर्तमान जरूरतों को पूरा करने पर ज्यादा जोर देता है, भावी जरूरतों को विचारने पर कम और ठीक इसी वजह से उसका कोई भविष्य नहीं होता. पूरी रिपोर्ट पढ़ कर आप सोचते रह जाते हैं कि काश, रिपोर्ट यह भी बताती कि दुनिया में 1 फीसदी अमीर आबादी के व्यवहारों में ऐसा क्या खोट है कि उसके भविष्य को सुरक्षित करने की कोशिश में दुनिया की 99 फीसद आबादी का जीना मुहाल होता जा रहा है. अगर गरीब सचमुच सही फैसले नहीं कर पाता, तो बारंबार लोग अपने वोट के सहारे सरकारें कैसे बदल देते हैं?

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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