‘एक्ट इस्ट’ के बाद ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’
मध्य एशिया रूस, चीन, अफगानिस्तान और भारत के बीचो-बीच पड़ता है, जिसका काफी सामरिक महत्व है. पहली बार वह मध्य एशिया पर अपनी रणनीति बना रहा है. अब उसने ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ यानी ‘मध्य एशिया से जुड़ो’ रणनीति तैयार की है. वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव आ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी […]
मध्य एशिया रूस, चीन, अफगानिस्तान और भारत के बीचो-बीच पड़ता है, जिसका काफी सामरिक महत्व है. पहली बार वह मध्य एशिया पर अपनी रणनीति बना रहा है. अब उसने ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ यानी ‘मध्य एशिया से जुड़ो’ रणनीति तैयार की है.
वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव आ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया और रूस की इस यात्र पर गौर करें, तो इस बदलाव की झलक मिलेगी. इस यात्र के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिनका एक-दूसरे से सहयोग का रिश्ता है और आंतरिक टकराव भी. इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज 9 जुलाई को रूस के उफा शहर में देखने को मिलेगा, जहां शंघाई (शांगहाई) सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन है. इसमें भारत और पाकिस्तान को पूर्ण सदस्य का दर्जा मिलनेवाला है. यह राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक सहयोग का संगठन है. इसमें भारत और पाकिस्तान का एकसाथ शामिल होना निराली बात है. इसके बाद उफा में ब्रिक्स देशों का सातवां शिखर सम्मेलन है. ब्रिक्स देश एक नयी वैश्विक संरचना बनाने में लगे हैं, जो पश्चिमी देशों की व्यवस्था के समांतर है.
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समांतर एक नयी व्यवस्था कायम होने जा रही है. यह व्यवस्था ऐसे देश कायम करने जा रहे हैं, जिनकी राजनीतिक और आर्थिक संरचना एक जैसी नहीं है और सामरिक हित भी एक जैसे नहीं हैं. यह व्यवस्था पश्चिमी देशों के नियंत्रण वाली व्यवस्था के समांतर है, बावजूद इसके यह उसके विरोध में नहीं है. ब्रिक्स में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक व्यवस्था पश्चिमी देशों के तर्ज पर उदार है, वहीं चीन और रूस की व्यवस्था अधिनायकवादी है. बावजूद इसके सहयोग के नये सूत्र तैयार हो रहे हैं. इससे जुड़े कुछ संशय भी सामने हैं.
कभी लगता है, हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिल कर चीन को संतुलित करेंगे. फिर लगता है कि रूस और चीन हमें अमेरिकी खेमे में जाने से रोक रहे हैं. शीत युद्ध के दौर में हमारा झुकाव सोवियत संघ की ओर था, पर नब्बे के दशक में हालात बदल गये. भारत ने अमेरिका के साथ दस साल का सामरिक गंठबंधन किया था, जिसे इस साल अगले दस साल के लिए बढ़ाया गया है. अपनी आर्थिक शक्ति के कारण भारत अब ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में है. मोदी सरकार ने पिछले एक साल में घरेलू मोरचे पर भले ही बड़े काम न किये हों, पर अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है.
नरेंद्र मोदी की इस यात्र को तीन हिस्सों में देखना होगा. पहला है मध्य एशिया के पांच ‘स्तान’. कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गीजिस्तान, तर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान. पिछले एक साल में हमने भारतीय विदेश नीति के अमेरिका, जापान, चीन, रूस और दक्षिण एशिया तथा एशिया-प्रशांत पक्षों पर ध्यान दिया. अब मध्य एशिया पर नजर है. वैश्विक राजनीति तेजी से बदल रही है. हमें एक तरफ पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है, वहीं चीन और रूस की विकसित होती धुरी को भी ध्यान में रखना है. मध्य एशिया में अपना प्रभाव बनाये रखने में रूस व चीन के बीच भी मुकाबला है. चीन के साथ हमारे सीमा विवाद हैं और पाक-चीन दोस्ती के छींटे भी हम पर पड़ते हैं.
इन राजनयिक जटिलताओं के बीच भारत और पाक दोनों एससीओ के सदस्य बनने जा रहे हैं. उफा में नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच अनौपचारिक मुलाकात भी होगी. विडंबना है कि दोनों देशों के बीच दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) में सहयोग नहीं होता, पर मध्य एशिया में रूस व चीन के फोरम पर सहयोग करना चाहते हैं. हाल में चीनी विदेश उप-मंत्री चेंग ग्वोफिंग ने कहा था कि भारत-पाक के एससीओ में शामिल होने से दोनों देशों के रिश्ते सुधरेंगे. कहना मुश्किल है कि रिश्ते सुधारने में इस संगठन की भूमिका होगी. चीन की दिलचस्पी ‘वन बेल्ट-वन रोड’ यानी अपनी सिल्क रोड में है.
चीन की ऊर्जा और खनिजों की जरूरतें बढ़ रही हैं. इस रास्ते से उसकी पाइप लाइनें निकलेंगी और तैयार माल भी बाहर जायेगा. साथ ही उसके सामरिक हितों की रक्षा भी होगी. इस दिशा में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर की महत्वपूर्ण भूमिका साबित होगी. भारत के संदर्भ में चीन की दिलचस्पी इसलामी आतंकवाद को काबू में करने और अफगानिस्तान में निर्माण कार्यो को बढ़ावा देने में है. इन दोनों में भारत के साथ उसका सहयोग संभव है, पर क्या पाकिस्तान के साथ खुफिया सूचनाओं को साझा किया जा सकेगा? ऐसे अनेक सवाल अभी उठेंगे.
भारत मध्य एशिया और अफगानिस्तान में अपने आर्थिक हित देख रहा है. तुर्कमेनिस्तान से अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए भारत तक 1,680 किमी लंबी पाइपलाइन (तापी) का निर्माण 2018 तक होना है. इस निर्माण के लिए कई देशों की कंपनियां आगे आयी हैं. रूस ने हाल के वर्षो में पाकिस्तान को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है. उसने पाकिस्तान को एससीओ में पर्यवेक्षक बनाने में मदद की. जवाब में पाक ने रूस को इसलामी देशों के संगठन (ओआइसी) में पर्यवेक्षक बनवाया. चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सामरिक गंठबंधनों के बजाय सहयोग संगठनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. पर भारत और पाकिस्तान के बीच सामरिक कारणों से ही आर्थिक सहयोग नहीं हो पाता है. निकट भविष्य में स्थितियां सुधरने की आशा भी नहीं है.
मोदी-यात्र का पहला पड़ाव मध्य एशिया के पांच देश थे. यहां उनका लक्ष्य इसलामी स्टेट के बढ़ते प्रभाव को रोकने और आर्थिक सहयोग के आधार खोजने पर केंद्रित था. इधर अफगानिस्तान में फिर से हिंसा बढ़ी है. इसके मध्य एशिया और काकेशिया तक फैलने की आशंका है. भारत का देश से बाहर एकमात्र सैनिक बेस ताजिकिस्तान के दक्षिण में फरखार नाम की एक हवाई छावनी के रूप में मौजूद है. अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई में इस छावनी का इस्तेमाल हुआ था. भारत उत्तरी गंठबंधन की सेनाओं का समर्थन करनेवाला महत्वपूर्ण देश था और उसने फरखार छावनी में एक सैनिक अस्पताल बनाया था. वहां अफगानिस्तान के उत्तरी गंठबंधन के घायल सैनिकों का उपचार होता था. तुर्कमेनिस्तान और कजाकिस्तान ऊर्जा स्नेतों से मालामाल हैं. सन् 1991 में मध्य-एशियाई देशों की स्वतंत्रता के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली पांच देशों की यात्र है.
मध्य एशिया रूस, चीन, अफगानिस्तान और भारत के बीचो-बीच पड़ता है, जिसका काफी सामरिक महत्व है. दूसरे यह कि मध्य एशिया में ऊर्जा के बड़े भंडार हैं. तीसरे, यह एक विशाल बाजार है.
भारत ने इस इलाके पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना अपेक्षित था. पहली बार वह मध्य एशिया पर अपनी रणनीति बना रहा है. अब उसने ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ यानी ‘मध्य एशिया से जुड़ो’ रणनीति तैयार की है. गौरतलब है कि यह ‘एक्ट इस्ट’ के बाद की कड़ी है.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com