भू-संपत्ति में भी महिलाओं को भागीदार बनाने पर विचार के दौरान यह तर्क था कि उनका अपना कोई घर नहीं होता. लेकिन पुरानी मान्यता कि बेटी तो बाप, पति और अंत में बेटे के अधीन है यानी ‘स्त्री स्वतंत्रों न मरहति’ की मान्यता समाप्त हो रही है.
इस सृष्टि के संचालन के लिए पुरुष और स्त्री की इकाई एक आवश्यक तत्व है, इसीलिए विवाह नाम की संस्था बनी. इस विवाह नाम की संस्था की स्थापना का इतिहास लगभग छह हजार साल पुराना है. इसका स्वरूप क्या हो, इसमें दुनिया भर में एकरूपता नहीं है. कहीं इसे पवित्र संस्कार और बंधन माना गया है और कहीं एक अनुबंध. लेकिन अब तो तलाक दुनियाभर में प्रचलित हो रहा है, इसलिए एक नया विचार यह बना है कि इसमें दोनों इकाइयों को समान अधिकार होना चाहिए, इसलिए कब तक संबंधों को जारी रखना चाहते हैं, उनकी इच्छा सर्वोपरि है. जो लोग इसे अनुबंध मानते थे, उनके साथ भी यह आग्रह जुड़ रहा है कि पुरुष-स्त्री संबंधों के फलस्वरूप तीसरा व्यक्ति भी अस्तित्व में आ रहा है, इसलिए उसके प्रति किसकी कितनी जिम्मेवारी हो, ऐसी व्यवस्था भी होनी चाहिए. प्राचीन युग में सृष्टि और संबंध के आधार क्या थे, अब उस पर चिंता करने के बजाय नयी परिस्थितियों में उस स्वरूप का निर्वाह कैसे हो, यह चिंता का विषय हो गया है.
सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में ही एक फैसला यह सुनाया है कि कुंवारी मां बच्चे की संरक्षक हो सकती है. इसके लिए किसी बाप की अनुमति आवश्यक नहीं है. क्योंकि संतान उसने पैदा किया है, इसलिए उसका वर्चस्व भी होना चाहिए. इसीलिए अब स्कूलों में बाप का नाम लिखाना अनिवार्य नहीं, माता के नाम से भी यह काम चल सकता है.
एक पुरानी उपनिषद् कथा भी है, जिसके फलस्वरूप जाबाल गोत्र का अभ्युदय हुआ था. एक बच्च जब गुरु के पास शिक्षा के लिए गया, तो गुरु ने उससे कहा कि अपनी मां से पिता का नाम पूछ आना. जब लड़के ने मां से पूछा तो उसने बताया कि जब तू पैदा हुआ, तो मेरे कई पुरुषों से संबंध थे, मैं नहीं कह सकती कि तू किसका पुत्र है. बच्चे ने जाकर गुरु से यह विवरण बताया, तो गुरु ने मां का नाम पूछा. बच्चे ने जाबाला बताया, इस प्रकार उसका नामकरण सत्यकाम जाबाल हो गया.
युग परिवर्तन के साथ विश्वास और मान्यताएं भी बदली हैं. अब धीरे-धीरे नयी मान्यताएं, विचार और अवधारणाएं जन्म ले रही हैं, क्योंकि पुरुष और स्त्री को जब बराबर की स्वतंत्रता और अधिकार मिले हैं, तो उनके अहं और स्वाभिमान की रक्षा का सवाल भी उठा है. इसलिए विवाह नाम की संस्था में क्षरण शुरू हुआ, जो दुनियाभर में देखा जा सकता है. इसी क्रम में भारत की मान्यताएं पुरुष प्रधान ही थीं यानी संपत्ति के मालिकाने में लड़कों को ही पात्र माना जाता था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब विवाह के अतिरिक्त सहजीवन को भी जीवन की एक विधा मान ली है और उससे उत्पन्न बच्चों को भी संपत्ति में अधिकार स्वीकार किया है, तब संरक्षक के प्रश्न पर कौन बच्चों की परवरिश, रक्षा और भविष्य के लिए हितकारी हो सकता है, यह सवाल उठेगा ही. इसी रूप में कुंवारी माता को भी बच्चे के संरक्षण का अधिकार दिया गया है. इससे यह संदेश भी जाता है कि मां की बच्चे के जन्म की इच्छा के बगैर उसका अस्तित्व संभव नहीं है. इसमें पुरुष पक्ष को अनिवार्य नहीं माना जा सकता.
अब कृत्रिम गर्भधारण की प्रक्रिया मनुष्यों में भी आरंभ हो गयी है. हालांकि अभी कृत्रिम वीर्य का निर्माण तो नहीं हो पाया है, जिसे आरोपित करके पुरुषों की आवश्यकता को ही नकार दिया जाये, लेकिन वीर्य बैंक की स्थापना करके कृत्रिम गर्भाधान बिना पुरुष का मुंह देखे भी हो सकता है. इस प्रकार यह मान लिया गया है कि संतानोत्पत्ति के लिए मां ही अनिवार्य तत्व है, इसलिए उसे अधिकार संपन्न भी किया जाना चाहिए. साथ ही इस महत्व के कारण वह कहीं अपमानित न हो सके, उसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि आज भी कुंवारी मां को सम्मानित नहीं माना जाता. ऐसा होने में अभी समय लगेगा.
अब महिलाएं जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत होती जा रही हैं. इसके साथ ही स्वतंत्र अर्जन के साधन भी उपलब्ध हुए हैं. शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में योग्यता और प्रतिभा के बल पर संसार में कई महत्वपूर्ण पदों, वृत्ति एवं व्यवसायों पर वे काबिज हो गयी हंै. इसलिए समाज में जब पूंजी ही निर्णायक तत्व होगी, तो उससे महिलाओं को अलग नहीं किया जा सकेगा. इसीलिए भू-संपत्ति में भी महिलाओं को भागीदार बनाने पर विचार के दौरान यह तर्क था कि उनका अपना कोई घर और स्थान नहीं होता, वे पुरुषों पर ही आश्रित होती हैं. लेकिन पुरानी मान्यता कि बेटी तो बाप, पति और अंत में बेटे के अधीन है, यानी ‘स्त्री स्वतंत्रों न मरहति’ की मान्यता समाप्त हो रही है. अब तो सत्ता में भी उनकी भागीदारी का सिद्धांत स्वीकार किया जा रहा है. इस कार्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, जिसमें बिना विवाह के सहजीवन, बच्चों के अधिकार और कुंवारी माताओं को भी बिना किसी अन्य की सहमति के बच्चों के संरक्षक बनाने संबंधी निर्णय भी हैं. माना यही जाता है कि जीवन की वास्तविकताओं से अधिक दिनों तक मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.
शीतला सिंह
संपादक, जनमोर्चा
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