सुभाष चंद्र कुशवाहा
साहित्यकार
सोशल मीडिया के सहारे समाज को भड़काने का काम तेज हो गया है. यहां अफवाहों को बेहद चतुराई, आसानी और त्वरित ढंग से परोसा जा रहा है. ट्वीटर, वाट्सएप्प, फेसबुक आदि की पहुंच, स्मार्टफोन की वजह से आम जनता तक हो गयी है. गांवों में भी स्मार्टफोन की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हुई है. दूसरे अन्य संचार माध्यमों की तुलना में ये माध्यम लोगों की अंगुलियों से संचालित हो रहे हैं.
बेशक इन माध्यमों की विश्वसनीयता की जब तक परख होती है, तब तक वे अपना दुष्प्रभाव दिखा चुके होते हैं. भारत जैसे बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजातीय समाज में, जहां सामाजिक और सांस्कृतिक एकता हमेशा संवेदनशील रही है, वहां सोशल मीडिया के माध्यम से समाज को बांटने, गुस्सा भड़काने और दंगा कराने का काम आसान हो चुका है. जब सत्ता तक पहुंचने के लिए धार्मिक कट्टरता को उभारना भी एक हथियार बन गया हो, तब यह खतरा और बढ़ जाता है.
सोशल मीडिया पर फैले असामाजिक तत्व, इनका दुरुपयोग कर, झूठी खबरों को गढ़ कर अपने राजनीतिक मकसदों को पूरा करने में सफल हो रहे हैं. यह अकारण नहीं है कि आज मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत से लेकर सहारनपुर तक, नफरत भड़काने का खेल सोशल मीडिया के सहारे ही हो रहा है. धर्मो की आस्था नाजुक हो चली है. वह किसी चित्र, किसी कथन या किसी काटरून से आहत हो जा रही है. असामाजिक तत्वों के लिए इंटरनेट, शैतान के हाथ में खंजर की तरह है. गाय काटने की अफवाह हो या मसजिद में सूअर फेंकने की, सब कंप्यूटर से तैयार चित्रों के सहारे सोशल मीडिया पर डाल कर किया जा रहा है. असम दंगों में भी सोशल मीडिया का दुरुपयोग हुआ था.
सोशल मीडिया जैसे सशक्त माध्यमों के सहारे समाज की दिशा और दशा, दोनों को प्रभावित किया जा सकता है.
असामाजिक तत्व भिन्न संदर्भो का चित्र, सोशल मीडिया पर डालते हुए यह अफवाह फैला देते हैं कि अमुक स्थान पर अमुक समुदाय के लोगों ने दंगा भड़का दिया है. दूसरे देशों में भी इसी तरह कुप्रचार फैला कर दंगा भड़काने का प्रयास हुआ है. चीन में फौजी बगावत का कुप्रचार, इंग्लैंड व टर्की में दंगा कराने का उदाहरण हमारे सामने है. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने सोशल मीडिया द्वारा अफवाह फैलाने की निंदा की है.
सोशल मीडिया की ताकत जितनी मजबूत है, उतनी ही आशंकित करनेवाली भी है. यह जितना जरूरी हो गया है, उतना ही दायित्वबोध की मांग कर रहा है. हमें इसके बेहतर उपयोग के साथ ही असामाजिक तत्वों की हरकतों से निबटने के बारे में भी सोचना होगा. सोशल मीडिया पर भड़काऊ सामग्री परोसनेवालों के खिलाफ स्पष्ट कानून होने ही चाहिए. सोशल मीडिया, संपादकीय नियंत्रण में रहनेवाले दूसरे संचार माध्यमों जैसा नहीं है.
ऐसे में सामग्री की गुणवत्ता के लिए नियंत्रण का माध्यम क्या हो, इस पर विचार किया जाना चाहिए. मगर ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह अभिव्यक्ति की आजादी का रास्ता न रोके. केवल गलत और झूठी खबरों को परोसनेवालों के विरुद्ध कार्रवाई हो. तभी हम सोशल मीडिया को जनउपयोगी बना सकते हैं.