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इच्छाशक्ति के आगे नि:शक्तता विफल

इस साल संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में अव्वल आकर इरा सिंघल ने एक सुखद अनुभूति दी है. इसके साथ ही राजलक्ष्मी सहाय ने प्रभात खबर में एक लेख ‘नि:शक्तों के लिए प्रकाश स्तंभ है इरा सिंघल’ लिख कर दोबारा इस अनुभूति से अभिभूत कर दिया. मैं हमेशा नि:शक्तों की इच्छाशक्ति […]

इस साल संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में अव्वल आकर इरा सिंघल ने एक सुखद अनुभूति दी है. इसके साथ ही राजलक्ष्मी सहाय ने प्रभात खबर में एक लेख ‘नि:शक्तों के लिए प्रकाश स्तंभ है इरा सिंघल’ लिख कर दोबारा इस अनुभूति से अभिभूत कर दिया. मैं हमेशा नि:शक्तों की इच्छाशक्ति का कायल रहा हूं.
इरा सिंघल की इच्छाशक्ति का भी कायल हो गया हूं. उनकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी है और वह बाहें भी नहीं घुमा सकतीं, कद औसत से भी कम. फिर भी उनकी अदम्य इच्छाशक्ति ने उन्हें संघ लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में पूरे देश में अव्वल बना डाला.
मुझे वर्ष 1989 के भागलपुर दंगे की याद आ गयी. मैं उन दिनों भारत सरकार के अधीन क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी के रूप में वहां प्रतिनियोजित था. आजादी के बाद देश में हुए भीषणतम दंगों में से एक इस दंगे से न सिर्फ आपसी विश्वास तथा सदभावना को भारी नुकसान हुआ था, बल्कि वहां की आर्थिक और औद्योगिक व्यवस्था पर भी प्रभावित हुई थी. यहां का मुख्य उद्योग कपड़ा है, जिसके अधिकांश बुनकर मुसलिम हैं तथा ज्यादातर व्यापारी हिंदू हैं.
इस दंगे में मानवता का क्रूर और विकृत चेहरा देखने को मिला, वहीं जान जोखिम में डाल कर मुसलिमों की जान बचाने की प्रेरणादयी घटनाएं भी सामने आयीं. एक नि:शक्त थे डॉ इंदू भूषण नेहरू. पेशे से शिक्षक, हृदय से कवि और दिमाग से समाजसेवी.
उन्होंने जान की परवाह किये बगैर दो दर्जन मुसलमान भाइयों को पनाह दी. हालांकि दंगाइयों ने उन्हें नुकसान पहुंचाने की काफी कोशिश की, लेकिन उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे किसी की न चल सकी. उनके अदम्य उत्साह के कारण उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.
अनिल किशोर सहाय, रांची

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