उच्च शिक्षा पर बहस
आइआइटी, रुड़की से 73 छात्रों के निष्कासन का विवाद तूल पकड़ रहा है. इसका एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि इनमें अधिकतर वंचित समुदाय के छात्र हैं. संस्थान का कहना है कि ये छात्र अकादमिक परीक्षाओं में न्यूनतम निर्धारित अंक नहीं ला पाये, जबकि छात्रों की ओर से भेदभाव और दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली के […]
आइआइटी, रुड़की से 73 छात्रों के निष्कासन का विवाद तूल पकड़ रहा है. इसका एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि इनमें अधिकतर वंचित समुदाय के छात्र हैं. संस्थान का कहना है कि ये छात्र अकादमिक परीक्षाओं में न्यूनतम निर्धारित अंक नहीं ला पाये, जबकि छात्रों की ओर से भेदभाव और दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली के तर्क दिये जा रहे हैं.
इसी बीच खबर है कि नये सत्र में तकनीकी संस्थानों में आरक्षित सीटों को भरने के लिए प्रवेश परीक्षा के न्यूनतम अंकों को 6.1 फीसदी के स्तर तक लाना पड़ा है. कुल 504 में से 31 से 62 अंक तक लानेवाले 180 छात्रों को संस्थानों के मूल पाठ्यक्रमों में प्रवेश देने से पूर्व साल भर की तैयारी कार्यक्रम में पंजीकृत किया गया है. इन खबरों से निकलनेवाला संकेत यही है कि वंचितों के लिए की गयी तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद उन तबकों के छात्र मेधा के मामले में अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंच पा रहे हैं.
उच्च शिक्षा के संस्थाओं द्वारा स्थापित मानदंडों- चाहे वे प्रवेश परीक्षा से संबद्ध हों या प्रवेश के बाद प्रशिक्षण के- पर ये छात्र यदि खरे नहीं उतर पा रहे हैं, तो यह गंभीर चिंता और बहस का विषय होना चाहिए.
इन प्रकरणों को उच्च शिक्षा से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए. इसका एक बड़ा कारण हमारी स्कूली शिक्षा के स्तर का निम्न होना भी है. यह जरूरी है कि हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था भी ऐसी हो, जो छात्रों को बेहतर उच्च शिक्षा के लिए तैयार कर सके.
आरक्षण और अन्य व्यवस्थाओं के बावजूद अगर वंचित तबकों के छात्रों की मेधा में निखार नहीं आ रहा है, तो हमारी राजनीति, सरकारों और समाज को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए. ऐसी समस्याएं सिर्फ राजनीतिक स्वार्थपूर्ति या वोट बैंक का जरिया नहीं बननी चाहिए, बल्कि उनके समाधान की ईमानदार कोशिशें की जानी चाहिए.
उच्च शिक्षा किसी देश-समाज की उन्नति का महत्वपूर्ण आधार होती है, लेकिन उसकी नींव तो स्कूली शिक्षा व्यवस्था में ही है. यहां एक आइआइटी के डायरेक्टर का यह तर्क गौर करने लायक है कि जब तक स्कूली शिक्षा का स्तर मानदंड के अनुरूप नहीं होगा, इसका खामियाजा उच्च शिक्षा को भी भुगतना ही पड़ेगा.
बीते कुछ वर्षो से सर्वेक्षण बताते रहे हैं कि भारतीय संस्थाओं से निकलनेवाले इंजीनियरों में करीब 70 फीसदी रोजगार देने के योग्य नहीं हैं. रिपोर्टो के अनुसार, सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में तो सक्षम स्नातकों का आंकड़ा 20 फीसदी से भी कम है.
लेकिन, उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में आड़े आ रही समस्याओं के समाधान के प्रति सरकारों का रवैया लापरवाह ही बना रहा है. तभी तो हाल में पुणो में नौकरी के लिए हुई एक परीक्षा में 1500 कंप्यूटर इंजीनियरों में से मात्र 30 सफल हुए. जाहिर है, शिक्षा के प्रति जागरूकता, संस्थानों की संख्या और खर्च में वृद्धि के चलते स्थिति में भले ही कुछ सुधार दिख रहा हो, गुणवत्ता के स्तर पर खामियां मौजूद हैं. देश में 16 आइआइटी, 21 एनआइटी और 600 से अधिक विश्वविद्यालय व अन्य उच्च शिक्षण संस्थान हैं, लेकिन शोध के मामले में हम रूस एवं चीन जैसे ब्रिक्स देशों से काफी पीछे हैं.
चीन के मानक शोध पत्रों की संख्या भारत से करीब ढाई गुनी है. इसके मद्देनजर बेहतर शैक्षणिक वातावरण मुहैया कराने की कोशिशों की जगह देश को व्यापमं जैसे घोटाले और प्रश्न-पत्र आउट होने जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में प्रतिभाओं का दमन होता है, जबकि पैसे एवं सिफारिश के बूते अयोग्य छात्र दाखिला पाने में सफल हो जाते हैं. अच्छे संस्थानों में प्रवेश के लिए मारामारी के बीच कोचिंग बिजनेस तेजी से फल-फूल रहा है और इनके शार्टकट तौर-तरीकों से हर वर्ष बड़ी संख्या में छात्र प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश पा रहे हैं. उच्च शिक्षा में गड़बड़ी का एक आयाम यह भी है.
सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता पर ‘असर’ रिपोर्ट हर साल चिंताजनक आंकड़े मुहैया कराती है, लेकिन यह राजनीतिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाती है. बड़ी संख्या में बच्चे निजी संस्थाओं में भी पढ़ रहे हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता पर निगरानी की समुचित व्यवस्था भी नहीं है. शिक्षण संस्थाओं में प्रतिभाओं को निखार कर देश के लिए बेहतर मानव संसाधन तैयार किये जाते हैं. लेकिन, हमारे राजनेता शिक्षा क्षेत्र की समस्याओं का हल तलाशने की बजाय इससे जुड़े विवादों पर स्वार्थ की रोटियां सेंकने में जुट जाते हैं.
अब जरूरी हो गया है कि शिक्षा के पूरे परिदृश्य को खंगाला जाये और राष्ट्रहित में उसे बेहतर करने के प्रयास किये जाएं. शिक्षा की गुणवत्ता की राह में आड़े आ रही समस्याओं पर सरकारों, संस्थानों, शिक्षकों, छात्रों-अभिभावकों और राजनीतिक-सामाजिक संगठनों को सकारात्मकता के साथ गौर करना चाहिए. इसमें संतुलित समझ और दूरदृष्टि की भी दरकार है.