25 साल में तो पांच बार चुनाव होंगे हुजूर

राजीव रंजन झा संपादक, शेयर मंथन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अभी एक दिन पहले कह डाला कि देश को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए कम-से-कम 25 साल चाहिए. ‘परम वैभव’ संघ परिवार से जुड़े लोगों का सपना रहा है.संघ की शाखाओं में रोज सुबह-शाम राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने की ही वंदना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 14, 2015 11:51 PM
राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अभी एक दिन पहले कह डाला कि देश को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए कम-से-कम 25 साल चाहिए. ‘परम वैभव’ संघ परिवार से जुड़े लोगों का सपना रहा है.संघ की शाखाओं में रोज सुबह-शाम राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने की ही वंदना होती है. लेकिन यह परम वैभव किसी सपनीली चीज सरीखा अस्पष्ट एवं अपरिभाषित है. कुछ-कुछ राम-राज्य सरीखा.
देश के प्रमुख सत्ताधारी दल का अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह को यह भी भान होगा कि केवल अपने कार्यकर्ताओं से 25 साल मांग लेना काफी नहीं है. उन्हें ये 25 साल देश की जनता से भी मांगने होंगे, और जनता ने उन्हें दिया भी तो एकमुश्त नहीं देगी, किस्तों में देगी.
हर पांच साल में उन्हें अपनी सत्ता के नवीकरण के लिए जनता के दरवाजे पर जाना होगा. जनता उनके बीते पांच सालों की कमाई देख कर ही आगे का फैसला करेगी. इसलिए बेहतर होगा कि वे सीधे 25 सालों की बात न करें, पहले उन 60 महीनों की ही बात करें, जो नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान में मांगे थे.
उन्हें बीते 13 महीनों की भी बात करनी होगी और बताना होगा कि इन 60 महीनों में से बाकी बचे 47 महीनों में वे देश क्या देनेवाले हैं. इस समय केंद्र सरकार की जो भी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं, वास्तव में उनके परिणाम पांच वर्षो में आनेवाले नहीं हैं. मिसाल के तौर पर, देश में 100 स्मार्ट सिटी विकसित करने के लिए जो खाका सामने रखा गया है, उसे हकीकत में बदलने के लिए 10 से 15 वर्षो का समय तो चाहिए ही. परंतु, 2019 में जब नरेंद्र मोदी अपने 60 महीनों का लेखा-जोखा लेकर जनता के बीच पहुंचेंगे, तब उनके पास यह बताने के लिए होना चाहिए कि इस दौरान स्मार्ट सिटी के काम को वे कागज से जमीन पर किस हद तक उतार पाये हैं.
कहीं ऐसा न हो कि 100 स्मार्ट सिटी बनाने का जो लक्ष्य हमें आज 10-15 सालों का लगता है, वह 2019 में भी 10-15 साल ही दूर नजर आये. क्या 2019 में मोदी सरकार 2-4 स्मार्ट सिटी तैयार कर चुकी होगी? क्या उस वक्त तक सरकार यह गिनाने की स्थिति में होगी कि ये हैं वे 25 स्मार्ट सिटी, जिनकी जमीनी तैयारी पूरी हो चुकी है और अगले पांच साल में वे बिल्कुल तैयार हो जानेवाली हैं?
आज से 25 साल बाद भारत के परम वैभव पर पहुंचने पर गंगा शायद इतनी साफ हो जाये कि वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति शर्मा के शब्दों में किसी पथिक को जब प्यास लगे तब वह गंगासे दो अंजली जल लेकर तृप्त हो जाये और काशी के मिष्ठान भंडारों में फिर बोर्ड टंगा मिले- ‘शुद्ध देसी घी और गंगाजल से निर्मित’.
लेकिन नमामि गंगे का मंत्र जपनेवाली सरकार हमें यह तो बताये कि बीते 13 महीनों में गंगा का प्रदूषण स्तर कहां-कहां कितना घटा है? सरकार हमें यह तो बताये कि आनेवाले 12 महीनों में वह गंगा को निर्मल बनाने के लिए क्या-क्या करने जा रही है? 2022 तक सबको आवास देने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखनेवाली सरकार क्या यह बता सकती है कि बीते 13 महीनों में कितने मकान तैयार हो गये हैं और अगले 48 महीनों में कितने तैयार होने वाले हैं?
केंद्र सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘2022 तक सबको आवास’ जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएं सामने रखी हैं, लेकिन सबके साथ यही सवाल जुड़ा है कि 2019 तक इन योजनाओं से जुड़ी कितनी उपलब्धियां सरकार गिना सकेगी? क्या तब तक मोदी सरकार कम-से-कम इतनी उपलब्धियां जुटा सकेगी कि उनके दम पर वह भारत की जनता को और अगले 20 सालों के सपने दिखा सके?
जब आप विपक्ष में होते हैं, तब सत्तापक्ष की नाकामियों को गिना कर अपने सपने दिखा सकते हैं, लेकिन पांच साल शासन करने के बाद तो आपको अगले 20 सालों की बात करने के लिए पिछले पांच सालों का लेखा-जोखा भी दिखाना ही होगा.
केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक एवं जाति आधारित जनगणना 2011 के जो आंकड़े बीती 3 जुलाई को जारी किये हैं, उनके मुताबिक देश के गांवों में हर तीसरा परिवार भूमिहीन है. जनगणना रिपोर्ट कहती है कि ये भूमिहीन परिवार आजीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर हैं.
सीधे शब्दों में कहा जा सकता है कि वे भूमिहीन मजदूर हैं. गांवों में रहनेवाले लगभग 49 फीसदी लोग गरीब हैं, वह भी सरकारी मानदंडों के अनुसार. वैसे देखा जाये तो तीन चौथाई ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 5,000 रुपये से कम है. आज भी ग्रामीण आबादी अधिकांशत: केवल कृषि पर निर्भर है, क्योंकि 14.01 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की आमदनी ही सरकारी सेवा, निजी क्षेत्र और सार्वजनिक उपक्रम जैसे अन्य स्नेतों से आती है.
इस जनगणना ने यह भी स्पष्ट किया है कि ग्रामीण आबादी कम हो रही है, यानी गांवों से शहरों में पलायन बढ़ रहा है. देश के 17.91 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से करीब 10.69 करोड़ परिवार वंचित हैं. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि गांवों से भाग कर शहर आनेवाले ज्यादातर लोगों को बेहतर जिंदगी नसीब हो पाती हो. शहरों की आपाधापी में लोग ज्यादा बीमार हो रहे हैं. गांवों में प्रति हजार आबादी में 89 लोगों की तुलना में शहरों में 118 लोग बीमार होते हैं.
अगले 25 वर्षो की एक दीर्घकालिक दृष्टि के साथ योजनाएं बनायी जायें, इसमें कोई बुराई नहीं है. कई लिहाज से यह आवश्यक ही है. लेकिन, साथ में केंद्र सरकार यह न भूले कि हर तरफ से त्रस्त जनता को तत्काल महसूस हो सकनेवाली राहतों की भी जरूरत है.
अगर 2019 में जनता ने महसूस किया कि बीते पांच सालों में उसकी जिंदगी में तो कोई फर्फ आया ही नहीं, तो 20-25 सालों के लिए बनी आपकी सारी योजनाएं धरी-धरायी रह जायेंगी. या तो अगला आनेवाला व्यक्ति उन योजनाओं का असली लाभ उठायेगा, या फिर आपके तब तक के किये-कराये पर पानी फेर कर अपनी अलग डफली बजाने लगेगा.
जनता को जिन बातों से अपनी जिंदगी में फर्क महसूस होता है, उनमें सबसे अहम पहलू है महंगाई. पिछले कई महीनों के आंकड़े लगातार यह विसंगति दिखा रहे हैं कि थोक महंगाई दर तो घट रही है, मगर खुदरा महंगाई कायम है. यदि मोदी सरकार इस विसंगति को दूर करने का रास्ता नहीं निकाल सकी, तो उसकी लोकप्रियता पर इसका असर पड़ना तय है.
वैसे भी अपनी छवि बनाये रखने और लोगों तक अपने संदेश सही ढंग से पहुंचा पाने के मामले में मोदी सरकार पिछले साल भर में बहुत सफल नहीं रही है. यह मोदी सरकार के लिए संभलने और कुछ फौरी नतीजे दिखाने का समय है. पांच साल ठीक चल पाये, तभी 25 साल की बातें सार्थक हो पायेंगी. और 25 साल में तो पांच बार चुनाव होंगे हुजूर.

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