अनिवार्य मतदान पर हो बहस
।। लाल कृष्ण आडवाणी ।। (वरिष्ठ भाजपा नेता) सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्णित जिन सात देशों में मतदाताओं हेतु ‘नोटा’ का प्रावधान है, उनमें से शुरू के पांच देशों में अनिवार्य मतदान का भी प्रावधान है. इसके अलावा 26 और ऐसे देश हैं. अपने देश में भी इस पर उद्देश्यपूर्ण बहस की दरकार है. मुझे पंडित […]
।। लाल कृष्ण आडवाणी ।।
(वरिष्ठ भाजपा नेता)
सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्णित जिन सात देशों में मतदाताओं हेतु ‘नोटा’ का प्रावधान है, उनमें से शुरू के पांच देशों में अनिवार्य मतदान का भी प्रावधान है. इसके अलावा 26 और ऐसे देश हैं. अपने देश में भी इस पर उद्देश्यपूर्ण बहस की दरकार है.
मुझे पंडित दीनदयालजी की वह सलाह याद आती है जब उन्होंने मुझे 1957 में राजस्थान से दिल्ली आकर श्री वाजपेयीजी का सहयोग करने को कहा. वाजपेयीजी पहली बार संसद में चुन कर आये थे और मुझे पार्टी की संसदीय इकाई गठित करने को कहा गया.
उन्होंने मुझे यह भी कहा कि मैं दुनिया के विभिन्न लोकतंत्रों में प्रचलित निर्वाचन पद्धतियों का भी अध्ययन करने के साथ–साथ निर्वाचन सुधारों के मुद्दे पर अपना ध्यान केंद्रित करूं, जो कि भारत को एक सच्चा सफल और जीवंत लोकतंत्र बना सके. तब से यदि किसी विशेष मुद्दे पर मैंने अपना सर्वाधिक ध्यान केंद्रित किया है, तो वह है निर्वाचन सुधार.
गत सप्ताह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका पर मुख्य न्यायाधीश सथाशिवम की पीठ ने मतदाताओं की नकारात्मक वोट देने की इच्छा के पक्ष में अपना निर्णय दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाया है कि अब से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में न केवल चुनाव लड़नेवाले प्रत्याशियों के लिए बटन हों, अपितु एक अतिरिक्त बटन ‘नोटा’ (नन ऑफ द एबव) नाम से भी होना चाहिए, जिसका अर्थ है ‘इनमें से कोई नहीं.’
सर्वोच्च न्यायालय की इस सलाह का सामान्य तौर पर स्वागत हुआ है. यहां तक कि निर्वाचन आयोग ने कहा है कि उसे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (इवीएम) में एक और बटन लगाने में कोई कठिनाई नहीं है. आज की स्थिति में, मतदाता बगैर किसी औचित्य के, संविधान द्वारा प्रदत्त अपने मत देने के महत्वपूर्ण अधिकारों का उपयोग नहीं करते, अत: अनजाने में वह सभी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के विरुद्ध अपना वोट न चाहते हुए भी देते हैं.
इसलिए मैं मानता हूं कि नकारात्मक वोट तभी सचमुच में अर्थपूर्ण बनेगा, जब उसके साथ मतदान अनिवार्य कर दिया जाये. भारत में गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य है जहां इस दिशा में पहल की गयी है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राज्य विधानसभा ने दो बार अनिवार्य मतदान का कानून बनाया है, लेकिन इसे न तो राज्यपाल और न ही नयी दिल्ली की स्वीकृति मिली है.
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री एस वाइ कुरैशी ने गत सप्ताह दो सुंदर लेख– एक, द इकोनॉमिक टाइम्स (2 अक्तूबर) और दूसरा, द इंडियन एक्सप्रेस (3 अक्तूबर)- लिखे हैं, जिसमें उन्होंने इस फैसले के परिणामों को विश्लेषित करने का प्रयास किया है और सारांश रूप में कहा है कि यदि नापसंद करने का अधिकार वास्तव में लागू किया गया तो कुछ समस्याएं खड़ी होंगी, जिनका समाधान निकाला जाना चाहिए.
कुल मिला कर, उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने स्वागतयोग्य बहस को जन्म दिया है. पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त के लेख संकेत करते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रावधान वास्तव में नकारात्मक वोट नहीं हैं. वास्तव में यह किसी को वोट न देने (Abstention vote) जैसा है.
आज दुनिया में 31 ऐसे देश हैं जहां के कानून किसी–न–किसी रूप में अनिवार्य मतदान पद्धति का प्रावधान करते हैं, परंतु प्रेक्षकों के मुताबिक इन कानूनों का विवरण इस तरह का है कि इनमें से केवल एक दर्जन ही बगैर किसी न्यायोचित कारण के अनिवार्य मतदान न करने की स्थिति में नागरिकों पर दंड देने का प्रावधान रखते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में सात देशों का उल्लेख किया गया है. साथ ही अमेरिका का एक राज्य है जहां मतदाताओं को मत पत्र दिया जाता है या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में ‘नोटा’ का प्रावधान होता है. जिन सात देशों का उल्लेख सर्वोच्च न्यायालय ने किया है, उनमें फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस, चिली, बांग्लादेश और यूक्रेन हैं. जिस अमेरिकी राज्य का उल्लेख किया गया है वह है नेवादा.
जिस तथ्य को मैं ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं, वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्णित जिन सात देशों में मतदाताओं हेतु ‘नोटा’ का प्रावधान है, उनमें से शुरू के पांच देशों– फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस और चिली– में अनिवार्य मतदान का भी प्रावधान है. शेष 26 देश, जिनमें किसी–न–किसी प्रकार के अनिवार्य मतदान का प्रावधान है, वे हैं– आस्ट्रिया, अर्जेन्टीना, आस्ट्रेलिया, बोलिविया, कोस्टा, रीका, साइप्रस, डोमिनियन रिपब्लिक, इक्वाडोर, मिस्र, फिजी, गबॉन, ग्वाटेमाला, होंडारस, इटली, लिंचिस्टाइन, लक्सम्बर्ग, मैक्सिको, नेरु, प्राग, पेरू, फिलीपीन, सिंगापुर, स्विटजरलैंड (Provience of Schaffhausen) थाईलैंड, तुर्की और उरुग्वे.
व्यक्तिगत रूप से मैं महसूस करता हूं कि यदि निर्वाचन आयोग एक ओर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रति और दूसरी ओर इन 31 देशों के कानूनों तथा नियमों संबंधी विस्तृत रिपोर्ट देने के साथ–साथ सभी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाता है, तो इस पूरे मुद्दे पर एक उद्देश्यपूर्ण बहस हो सकती है.
(लाल कृष्ण आडवाणी के ब्लॉग से साभार)