सोशल मीडिया और हमारी अभिव्यक्ति

मुकुल श्रीवास्तव प्राध्यापक एवं लेखक सोशल मीडिया के आगमन से जनमत आकलन का एक नया पैमाना मिला. पहले जनमत निर्माण का कार्य जनमाध्यम जैसे रेडियो, टीवी, अखबार आदि किया करते थे, पर सोशल मीडिया ने इस परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया है. अब खबरों के लिए मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया पर निर्भर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 17, 2015 1:44 AM
मुकुल श्रीवास्तव
प्राध्यापक एवं लेखक
सोशल मीडिया के आगमन से जनमत आकलन का एक नया पैमाना मिला. पहले जनमत निर्माण का कार्य जनमाध्यम जैसे रेडियो, टीवी, अखबार आदि किया करते थे, पर सोशल मीडिया ने इस परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया है. अब खबरों के लिए मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया पर निर्भर रहने लग गया है और इसमें बड़ी भूमिका ट्विटर की है.
बड़े नेताओं और लोगों की विभिन्न मुद्दों पर राय अब ट्विटर के जरिये खबर बनती है और इसीलिए सोशल नेटवर्किग साइट्स को सामान्य जनता के विचारों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा जाता है. यह माना जाता है कि सोशल मीडिया सही मायने में एक ऐसा मीडिया है, जो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त है. लेकिन. सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में इंटरनेट भी सूचना के मुक्त प्रवाह का विकल्प बन कर नहीं उभर पा रहा. मुद्दों के लिए सोशल मीडिया से जिस तरह की विविधता की उम्मीद की जाती है, तथ्य इसके इतर इशारा करते हैं.
अमेरिकी शोध पत्रिका ‘पलोस’ में छपे ब्रायन कीगन, द्रेव मगरेलिन और डेविड लजेर के शोध पत्र के मुताबिक, किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम में ट्विटर जैसी प्रमुख सोशल मीडिया साइट्स में अंतर-वैयक्तिक संवाद का स्थान प्रसिद्ध हस्तियों एवं उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों ने ले लिया, जिससे आम जनता के विचार उनके सामने दब के रह गये.
नामचीन लोगों के ट्वीट या उनके विचारों को सोशल मीडिया ने ज्यादा तरजीह दी, जिससे सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय वही मुद्दे बने, जो पारंपरिक मीडिया में अथवा बड़ी हस्तियों द्वारा उठाये गये, न कि वे मुद्दे, जो वास्तव में जनता के मुद्दे थे.
सोशल मीडिया में चर्चित विषय को रेडियो, टीवी और अखबार भी प्रमुखता से आगे बढ़ाते हैं. भारत इसमें कोई अपवाद नहीं है. 2009 में जहां सिर्फ एक भारतीय नेता के पास ट्विटर अकाउंट था, वहीं अब हर दल और नेता ट्विटर से संचार कर रहे हैं. अमेरिकी पत्रिका में छपे शोध में राजनीतिक रूप से सक्रिय 1,93,532 लोगों के 290 मिलियन ट्वीट का अध्ययन किया गया.
ट्वीट्स के माध्यम से आती हुई सूचना इतनी आकर्षक थी कि जनता उसमें उलझ कर रह गयी. लोग समझ ही नहीं पाये कि जिन मुद्दों को वे री-ट्वीट के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं, वे वास्तव में किसी और के मुद्दे हैं. जनता का ध्यान आपसी संवाद एवं जरूरी मुद्दों के विश्‍लेषण से हट कर विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किये गये ट्वीट्स पर केंद्रित हो गया, जिससे स्वतंत्र विचारों पर कुठाराघात हुआ है और अफवाहों के फैलने की आशंका भी बढ़ गयी है.
इस तथ्य के बावजूद कि सोशल मीडिया ज्यादा लोगों की विविध आवाज को लोगों के सामने ला सकता है, किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में यह सोशल चौपाल वास्तविक चौपाल के उलट कुछ खास जनों तक सिमट कर रह जाता है.
इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक ध्वनियों की अनदेखी हो जाती है, जिससे सही जनमत का निर्माण नहीं हो पाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आनेवाले वक्त में इसमें परिवर्तन आयेगा और किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में विविध ध्वनियां मुखरित होंगी.

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