बेलाग बातों का मर्म

कफन की जेब नहीं होती. इससे बड़ा सच और क्या हो सकता है? पर इस सच को जानते हुए भी लोग धतकर्म से नहीं चूकते. कई सरकारी कर्मचारी हैं, जो भ्रष्ट तरीके से पैसे बनाते हैं. यही अंतरविरोध है. यह बात समझ में नहीं आती कि जब ऐसे कर्मचारियों को तनख्वाह मिलती है, सरकारी सुविधाएं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 18, 2015 1:59 AM

कफन की जेब नहीं होती. इससे बड़ा सच और क्या हो सकता है? पर इस सच को जानते हुए भी लोग धतकर्म से नहीं चूकते. कई सरकारी कर्मचारी हैं, जो भ्रष्ट तरीके से पैसे बनाते हैं. यही अंतरविरोध है. यह बात समझ में नहीं आती कि जब ऐसे कर्मचारियों को तनख्वाह मिलती है, सरकारी सुविधाएं मिलती हैं, तो भी वे भ्रष्ट आचरण अपनाने से क्यों नहीं हिचकते. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब इस अंतरविरोध की तह तक जाना चाहते हैं. एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि कुछ सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार से पैसा बनाने के लिए कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं.

यही नहीं, बगैर काम के अग्रिम पैसा निकाल लेने का भी उन्होंने हवाला दिया और कहा कि सरकारी स्कूलों में पढ़ानेवाले शिक्षक अपने ही बच्चों को उन स्कूलों में नहीं पढ़ाते. वस्तुत: ये ऐसे सवाल हैं जिनसे आम आदमी हर दिन सामना करता है और अपने हिसाब से हालात को परिभाषित करने लगता है. लेकिन, जब मुख्यमंत्री ऐसी बेलाग बातें करने लगें, तो समझना चाहिए कि मामला बेहद गंभीर है.

इसकी गंभीरता राजनीति के लिए भी है और समाज के लिए भी. दुर्भाग्य से राजनीति का व्यावहारिक पक्ष यही बताता है कि राजनीतिज्ञ ऐसे मुद्दों पर सीधी बातें नहीं करते. वे भ्रष्टाचार पर बोलेंगे, लेकिन सरकारी कर्मचारियों का एक हिस्सा इसमें शामिल रहता है, इसे वे परदे के पीछे डाल देंगे. कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर राजनीतिज्ञ बहुत बच-बचाकर बोलते हैं. उन्हें इसकी आशंका रहती है कि उनकी बातों से कहीं वोट न बिगड़ जाये. पर, नीतीश कुमार ने जोखिम लेकर भी यह बात कही. यही बात उन्हें दूसरे राजनीतिज्ञों से अलग खड़ा करती है. जिस राजनीतिज्ञ को वोट की चिंता होगी, वह कतई ऐसी बात नहीं करेगा.

वह भी तब, जब राज्य में विधानसभा चुनाव की आहट तेज हो गयी हो. इस घड़ी में राजनीतिज्ञ एक-एक वोट के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं. याद रहे कि राज्य में सरकारी कर्मचारियों की तादाद करीब साढ़े तीन लाख है. वोट के लिहाज से यह बड़ी संख्या है. इसके बावजूद आम आदमी के अनुभवों की तरह नीतीश कुमार ने बेलौस टिप्पणी की है. वह भी नफा-नुकसान का आकलन किये बिना. इस मामले का दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति अगर आर्थिक-नैतिक भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करे, तो निजी-सार्वजनिक जीवन में एक हद तक बदलाव आयेगा. लेकिन, सवाल यह है कि क्या इसके लिए आज की राजनीति और राजनीतिज्ञ जोखिम उठायेंगे?

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