इमरजेंसी पर नकारात्मक प्रस्तुति
वर्ष 1975 में लगे आपातकाल पर आज भी पत्र-पत्रिकाओं, भाषणों, वक्तव्यों और बैठकों में भयानक चर्चा होती है. लोमहर्षक और भयावह प्रस्तुतीकरण के लिए होड़ है, मानो इस प्रस्तुति के बाद उन्हें सीधे किसी सम्मानित पुरस्कार से नवाजा जायेगा. पहले से स्वस्थ विवेचना की परंपरा रही है. खामियों का अंबार होते हुए भी कुछ न […]
वर्ष 1975 में लगे आपातकाल पर आज भी पत्र-पत्रिकाओं, भाषणों, वक्तव्यों और बैठकों में भयानक चर्चा होती है. लोमहर्षक और भयावह प्रस्तुतीकरण के लिए होड़ है, मानो इस प्रस्तुति के बाद उन्हें सीधे किसी सम्मानित पुरस्कार से नवाजा जायेगा.
पहले से स्वस्थ विवेचना की परंपरा रही है. खामियों का अंबार होते हुए भी कुछ न कुछ सकारात्मक पहलू पर भी विचार पेश किया जाना चाहिए.
लेकिन इस मामले में तो ऐसा लगता है, जैसे सबने कसम खा रखी है कि इसकी चाहे जितनी जड़ खोदो, कोई कुछ नहीं कहेगा. आज भी इस मामले में कई प्रश्न अनुत्तरित हैं, जिनका उत्तर हमें निष्पक्ष होकर ढूंढ़ना चाहिए. विवेचकों को गंभीरता से विचार करना होगा कि तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अंगीकार करनेवाले अपने देश के किसी नेता को ऐसी क्या जरूरत पड़ी कि उसने आपातकाल का सहारा लिया?
विश्वनाथ झा, देवघर