शांता के मन की बात
पिछले साल के आम चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी जीत का एक अहम कारक था कि वह खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ जताने में सफल रही थी. तब पार्टी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ‘भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति’ और ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ जैसे नारों से जनता […]
पिछले साल के आम चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी जीत का एक अहम कारक था कि वह खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ जताने में सफल रही थी. तब पार्टी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ‘भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति’ और ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ जैसे नारों से जनता के मन में एक नयी उम्मीद जगायी थी.
लेकिन, केंद्रीय सत्ता में आने के 14 माह बाद पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं पर लगते गंभीर आरोपों पर केंद्रीय नेतृत्व अपनी ओर से कोई कार्रवाई करता नहीं दिख रहा है. यहां तक कि भ्रष्टाचार के प्रति रवैये को लेकर अपने एक बुजुर्ग नेता एवं हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की चिट्ठी भी पार्टी और सरकार को नागवार गुजरी है. शांता कुमार ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को लिखे पत्र में कहा है कि राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक में भाजपा की कार्यप्रणाली पर उंगलियां उठ रही हैं.
मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले से तो न सिर्फ राजग सरकार की साख को धक्का लगा है, बल्कि पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं का सिर शर्म से झुक गया है. इस पत्र में उन्होंने ‘मूल्यों की राजनीति की जगह सत्ता की राजनीति के चलन’ पर दुख जताते हुए लोकपाल की तर्ज पर राज्यों में एथिक्स कमेटी बनाने की मांग भी की है.
पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता द्वारा संवाद के लिए पार्टी अध्यक्ष को पत्र लिखना जाहिर करता है कि पार्टी के भीतर मनभेद और संवादहीनता की स्थिति है. किसी भी राजनीतिक पार्टी में एक मजबूत केंद्रीय नेतृत्व कई मायनों में पार्टी को एकजुट और गतिमान बनाये रखने के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन महत्वपूर्ण फैसलों में भी क्षेत्रीय नेताओं से कोई राय न लेने या उनकी राय को कोई अहमियत न दिये जाने को लोकतांत्रिक तरीका नहीं कहा जा सकता. और यह पहली बार नहीं है, जब किसी वरिष्ठ नेता ने पार्टी की कार्यप्रणाली पर उंगली उठायी है.
इससे पहले पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा था कि पार्टी ने 75 साल से अधिक उम्र के अपने नेताओं को ‘ब्रेन डेड’ घोषित कर दिया है. पार्टी भले ही अपने वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी को यह कह कर खारिज कर दे कि जिन्हें बड़ा पद नहीं मिला है वे अपनी कुंठा जाहिर कर रहे हैं, लेकिन इससे कार्यकर्ताओं में यही संदेश जायेगा कि जब नेताओं की ही नहीं सुनी जा रही, तो उनकी क्या हैसियत.
साथ ही, जब अनुभवी एवं बुजुर्ग नेता अपने मन की बात कहने या सलाह देने पर फटकारे जाएंगे, जैसा कि शांता कुमार के पत्र के बाद हुआ, तब ‘सबका साथ’ के उसके नारे पर सवाल उठना भी लाजिमी है.