जातीय जनगणना की पृष्ठभूमि भी देखें

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रवादी विचारधारा की वजह प्रचंड बहुमत प्राप्त कर बननेवाली राजग की नरेंद्र मोंदी की सरकार ने 2011 कह जनगणना से आयी जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने का अहम फैसला आखिरकार कर ही लिया है. साथ ही यह भी संभव है कि बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 25, 2015 1:05 AM
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रवादी विचारधारा की वजह प्रचंड बहुमत प्राप्त कर बननेवाली राजग की नरेंद्र मोंदी की सरकार ने 2011 कह जनगणना से आयी जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने का अहम फैसला आखिरकार कर ही लिया है. साथ ही यह भी संभव है कि बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले इन आंकड़ों को केंद्र की सरकार द्वारा घोषित किया जाये.
इस जातीय आंकड़े को जारी करने के पहले इसकी पृष्ठभूमि पर गौर करना भी आवश्यक होगा. भारत में अंगरेजी हुकूमत के दौरान वर्ष 1872 में आबादी की गिनती शुरू की गयी, लेकिन 1881 के बाद से हर दस साल के बाद लोगों की गिनती लगातार शुरू की गयी.
यह परंपरा आज भी जारी है. भारत की 1857 की पहली स्वतंत्रता संग्राम में देश के सभी जातियों एवं धर्मो के लोगों ने पूरी एकता व शक्ति से अंगरेलो के खिलाफ लड़ाई लड़ी. भारतीयों की इसी एकता को तोड़ने के लिए भारतीयों को जाति एवं धर्म में बांटने की नापाक कोशिश की गयी. 1871 में बनी हंटर समिति की रिपोर्ट 1905 में बंगाल विभाजन का अहम वजह बनी. इसकी अंतिम परिणति 1947 का भारत का विभाजन रहा. यह जातीय गणना इतना खतरनाक थी कि 11 फरवरी 1931 को गांधी जी ने इसका विरोध किया था.
आजाद भारत में भी लोकतांत्रिक सरकारों ने इस परंपरा को जारी रखा. 2010 में यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी को विशेषज्ञों ने गरीबी दूर करने के लिए जातीय गणना कराने की बात कही. आज इसी की परिणति है कि गरीबों को जानने के लिए गरीब की पहचान करने के बजाय जातीय गणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग उठ रही है, जो विखंडनकारी साबित होगी.
शैलेंद्र कुमार, रांची

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