राजधानी में युद्ध स्मारक कब तक?

विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार अभी कुछ दिन पहले इंडिया गेट के करीब से गुजरते हुए देखा कि उससे सटे हुए प्रिंसेस पार्क में सब कुछ सामान्य है. लगता है कि इधर रहनेवालों को मालूम भी नहीं कि इधर ही मोदी सरकार ने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनाने का फैसला किया था. बीते लोकसभा चुनाव प्रचार के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 25, 2015 1:06 AM

विवेक शुक्ला

वरिष्ठ पत्रकार

अभी कुछ दिन पहले इंडिया गेट के करीब से गुजरते हुए देखा कि उससे सटे हुए प्रिंसेस पार्क में सब कुछ सामान्य है. लगता है कि इधर रहनेवालों को मालूम भी नहीं कि इधर ही मोदी सरकार ने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनाने का फैसला किया था.

बीते लोकसभा चुनाव प्रचार के समय नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में युद्ध स्मारक निर्माण का वादा किया था. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने युद्ध स्मारक और संग्रहालय के लिए अपने पहले अंतरिम बजट में 100 करोड़ रुपये रखे भी थे. लेकिन, उसके बाद क्या हुआ, किसी को इसकी जानकारी नहीं है.

दरअसल, प्रिंसेस पार्क में भारतीय सेना के अधिकारियों के घर हैं. करीब 10-12 एकड़ में फैला है यह क्षेत्र. सरकार जब सैनिकों के लिए वन रैंक-वन पेंशन के वादे को लेकर गंभीर है, तो उसे युद्ध स्मारक को लेकर भी गंभीर रुख अपनाना चाहिए.

शर्म की बात है कि स्वतंत्र भारत ने अपने वीर सैनिकों के लिए अभी तक कोई स्मारक नहीं बनाया है.

कुछ दिन पहले भारत-चीन युद्ध के नायक रिटायर्ड कर्नल वीएन थापर से मुलाकात हुई. वे करगिल युद्ध में शहीद हुए अपने बेटे विजयंत थापर के नाम पर बनी नोएडा की एक सड़क पर लगे पोस्टरों को उखाड़ कर लौटे थे. डबडबायी आंखों से कर्नल थापर कहने लगे, ‘अफसोस कि युद्ध के बाद शहीदों की कुर्बानी भुला दी जाती है.’

इस बात को लेकर जरूर सवाल उठना चाहिए कि युद्ध स्मारक बनाने का फैसला लेने में इतना वक्त क्यों लगा.

पूछा जा सकता है कि जब एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक के आयोजन में भारी धनराशि खर्च हो सकती है, तो फिर शहीदों की याद में स्मारक बनाने के रास्ते में क्या चीज आड़े आ रही थी. हालांकि, कुछ लोग युद्ध स्मारक को बनाने के पक्ष में नहीं हैं. वे मानते हैं कि यह भारत का अमेरिकीकरण करने की दिशा में एक और कदम होगा.

युद्ध स्मारक के दो पहलू हैं. शहीदों को याद रखना और युद्ध के विचार को जीवित रखना. ऐसे में, युद्ध की विभीषिका के विचार को खत्म करना होगा.

रणबांकुरों को लेकर सरकारों का रुख बेहद ठंडा रहा है. अफसोस है कि पाठ्यपुस्तकों में उन युद्धों पर अलग से अध्याय तक नहीं है. हां, गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्मअदायगी हम जरूर कर लेते हैं. सबसे दुखद पहलू यह है कि अब सेना को नीचा दिखाने की चेष्टा हो रही है.

कारगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के निर्माण की मांग ने जोर पकड़ा था. हालांकि, चीन के खिलाफ जंग के बाद भी स्मारक बनवाने की मांग हुई थी. पहले स्मारक को इंडिया गेट परिसर में बनी छतरी के पास ही बनाने की बात थी. सरकार का युद्ध समारक में 50 हजार शहीदों के नाम अंकित करने का प्रस्ताव है.

अफसोस की बात है कि अंगरेजों ने विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों की याद में इंडिया गेट बनवाया. वहां सभी शहीदों के नाम अंकित हैं, पर हम अपने योद्धाओं के लिए स्मारक बनाने के लिए इतना वक्त ले रहे हैं. क्या मोदी सरकार अपने वादे को निभाने को लेकर गंभीर है? कल कारगिल दिवस पर उसे देश को इसका जवाब देना चाहिए.

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