संसद चलाने का हमारा अपना ढंग है

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार वे स्टमिंस्टर पैलेस, जहां यूनाइटेड किंगडम की संसद बैठती है, की व्यवस्था संभालनेवाले अधिकारी को ‘ब्लैक रॉड’ कहा जाता है. 14वीं सदी के मध्य में सृजित यह पद उनकी संसदीय प्रणाली में निहित परंपरा और प्रोटोकॉल को निरूपित करता है. ब्लैक रॉड का एक काम हाउस ऑफ कॉमन्स में जाकर इसके […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 28, 2015 1:16 AM
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
वे स्टमिंस्टर पैलेस, जहां यूनाइटेड किंगडम की संसद बैठती है, की व्यवस्था संभालनेवाले अधिकारी को ‘ब्लैक रॉड’ कहा जाता है. 14वीं सदी के मध्य में सृजित यह पद उनकी संसदीय प्रणाली में निहित परंपरा और प्रोटोकॉल को निरूपित करता है. ब्लैक रॉड का एक काम हाउस ऑफ कॉमन्स में जाकर इसके सदस्यों को महारानी के सालाना भाषण के लिए तलब करना भी है.
उसे झुक कर अभिवादन करना और यह कहना होता है, ‘श्रीमान सभाध्यक्ष, महारानी इस सदन को ‘हाउस ऑफ पीअर्स’ में महामहिम की खिदमत में पेश होने का हुक्म देती हैं.’ ‘हाउस ऑफ पीअर्स’ उच्च सदन होता है, जिसे हाउस ऑफ लार्डस भी कहा जाता है.
कई वर्षो से, ब्लैक रॉड की यह घोषणा खत्म होते ही उस पर लेबर सांसद डेनिस स्किनर द्वारा बेअदब टिप्पणी की जाती है. वह कोयला खनिक रह चुके हैं और गणतंत्रवादी हैं, माने कि वह राजशाही को खारिज करते हैं. उनका हस्तक्षेप संक्षिप्त, अमूमन केवल एक पंक्ति का होता है, लेकिन हास्यप्रद होता है. क्योंकि भिन्न दृष्टि से एक गरिमापूर्ण और औपचारिक रस्म में वह व्यवधान डालते हैं. जो लोग उनसे नावाकिफ हैं, उनके लिए डेनिस स्किनर को इंटरनेट पर सर्च करना लाभप्रद होगा.
बीते शुक्रवार को एक टेलीविजन चैनल पर भारतीय संसद में व्यवधान के विषय पर आयोजत बहस में मैं शामिल था. इसी दौरान मुङो उनकी याद आयी. कांग्रेस इस जिद पर अड़ी हुई है कि जब तक केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को हटाती नहीं है या कम-से-कम उन पर कार्रवाई नहीं करती है, तब तक वह संसद नहीं चलने देगी. इनमें विदेशी मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी शामिल हैं. दोनों पर आइपीएल के भगोड़े संस्थापक ललित मोदी की गुपचुप मदद का आरोप है.
इस मामले में कार्रवाई करने की मोदी सरकार की अनिच्छा या इनकार की वजह से कांग्रेस को यह मौका मिला है. यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए : कांग्रेस जो कर रही है क्या वह जायज है? बिलाशक नहीं. संसद विधायी कार्यो और बहस के लिए है और यदि कांग्रेस को लगता है कि सरकार को शार्मिदा करने के लिए उसके पास पर्याप्त मसाला है, तो इसके लिए सही मंच लोकसभा है. एक और सवाल जो खुद-ब-खुद उठता है : कांग्रेस जो कर रही है क्या वह उसके लिए सही राजनीति है?
जवाब है : हां. जिस पार्टी के पास राहुल गांधी जैसे खराब वक्ता हैं वह संसद को ठप करके ही अपनी ओर ध्यान खींच सकती है. यह महज खामख्याली है कि हम धारदार बौद्धिक बहसों का आनंद उठानेवाले देश हैं. हम ऐसे नहीं हैं. ऐसे में बहस के जरिये छाप छोड़ना शायद संभव नहीं है. अगर संख्या की बात करें, तो 44 सदस्यों के साथ कांग्रेस इतनी मजबूत नहीं है कि वह सदन में सत्ता पक्ष की अगली कतार को घेर सके. व्यवधान पैदा किये बगैर, कांग्रेस लोकसभा में अप्रासंगिक हो जायेगी.
जितने लंबे समय तक वह संसद के कामकाज को ठप रख पायेगी, उतना ही ज्यादा प्रासंगिक रहेगी. कम-से-कम छोटी अवधि में. इस तरह कहें तो व्यवधान एक तात्कालिक व्यूह रचना (टैक्टिक) है. इसे दीर्घकालिक रणनीति (स्ट्रैटजी) या इसका एक हिस्सा बनाने से पहले, कुछ चिंतन जरूर किया जाना चाहिए. पार्टी के भीतर यह हो रहा है या नहीं, इसे लेकर मैं सुनिश्चित नहीं हूं.
खैर जो हो, इस तरह की व्यूह रचना में कांग्रेस को इसलिए मदद मिल रही है क्योंकि हमारा मीडिया और आम लोग व्यवधान को लेकर काफी सहिष्णु हैं. ‘लोकतंत्र के मंदिर’ (जैसा कि प्रधानमंत्री संसद के सामने नतमस्तक होते हुए कह चुके हैं) के विचार पर संकट को लेकर कहीं कोई सच्च डर दिखायी नहीं देता. ‘हमारी मांगें मानो, वरना हम काम नहीं होने देंगे’ जैसी चीज की यूनाइटेड किंगडम की संसद या अमेरिका की विधायी संस्थाओं में कल्पना तक नहीं की जा सकती.
इस मामले में सरकार के रुख के बारे में क्या कहा जाये? सरकार कई विधेयकों को जल्द से जल्द कानूनी जामा पहनाना चाहती है और इस लिहाज से उसका बहुत कुछ दावं पर लगा है. सुधारों की मंद गति को लेकर कॉरपोरेट जगत में बेचैनी से मोदी सचेत हो चुके हैं. इसे देखते हुए, मेरी समझ से इस मामले में गलती सरकार ने की है.
यकीनन उसे पता रहा होगा कि सत्र शुरू होने से पहले उसे इस मामले को ठंडा करने के लिए कुछ न कुछ करना होगा. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. क्यों? हो सकता है कि उसने मान लिया हो कि वह कांग्रेस को दबा लेगी. यदि ऐसा है, तो वह गलत साबित हो चुकी है.
ज्यादा संभावित वजह यह लगती है कि उसने सोचा होगा कि यह मुद्दा अपने आप खत्म हो जायेगा और कांग्रेस किसी और मुद्दे की तरफ बढ़ जायेगी. यह अब भी संभव है क्योंकि ज्यादातर मौकों पर यही होता है.
इसे समझने के लिए हमें बीते सालों की उन चीजों की फेहरिस्त से गुजरना होगा जिनकी वजह से विपक्ष ने संसद को बाधित किया. जो मुद्दे हर हाल में राजनीतिक दलों को खौलाने के लिए पर्याप्त लगते थे, वे चंद दिनों में ही ठंडे पड़ गये. अभी सत्र अगस्त के मध्य तक चलना है, जिसे देखते हुए शायद इस बार भी यही होगा.
लेकिन यह एक जुआ है. यह पहलकदमी कांग्रेस के हाथों सौंप देनी होगी. यानी, जब तक राहुल गांधी कामकाज ठप रखने पर उतारू रहेंगे, भाजपा केवल मूकदर्शक बन कर अपना विधायी एजेंडा टलते देखते रहने को मजबूर रहेगी. जिसे देश उदासीन बन कर देखता रहेगा और मीडिया की रुचि सिर्फ तमाशे तक सीमित रहेगी.
थोड़े से भारतीय, जिसमें बहुत से प्रभात खबर के पाठक भी होंगे, संसद के लगातार बाधित रहने से नाराजगी और निराशा महसूस करेंगे. इन लोगों के लिए मेरा संदेश है कि परंपरा और प्रोटोकॉल का यह हमारा संस्करण है. हम डेनिस स्किनरों का देश हैं. हमें इस बात से हैरतजदा नहीं होना चाहिए कि जो अव्यवस्था और अराजकता हमारी गलियों और हमारे कस्बों में दिखती है, वह लोकतंत्र के मंदिर में भी है.
(अनुवाद : सत्य प्रकाश चौधरी)

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