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भारतीय संसद की उपादेयता
एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार संसद की कार्यवाही आज भी ठप्प रही- यह देश के नागरिकों के लिए एक आम वाक्य हो चला है. राजनीतिक वर्ग प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर में आजकल ‘तेरा भ्रष्टाचार बनाम मेरा भ्रष्टाचार’ खेल रहे हैं. भाव कुछ इस तरह का है- ‘तुमने मेरे मंत्री या मुख्यमंत्रियों का भ्रष्टाचार दिखाया, लो […]
एनके सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
संसद की कार्यवाही आज भी ठप्प रही- यह देश के नागरिकों के लिए एक आम वाक्य हो चला है. राजनीतिक वर्ग प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर में आजकल ‘तेरा भ्रष्टाचार बनाम मेरा भ्रष्टाचार’ खेल रहे हैं. भाव कुछ इस तरह का है- ‘तुमने मेरे मंत्री या मुख्यमंत्रियों का भ्रष्टाचार दिखाया, लो अब ये तुम्हारे मुख्यमंत्रियों का है.
हो गया न बराबर!’ सकारात्मक रूप से सोचा जाये तो सत्ताधारियों का भ्रष्टाचार सामने आ रहा है. किसी भी विकासशील समाज के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है. लेकिन, डर यह है कि जब भ्रष्टाचार हर लम्हे पर और हर मकाम पर दिखाई देने लगेगा, तो सत्ताधारी की शर्म जाती रहेगी और पूरा समाज ही इसके प्रति सहिष्णु हो जायेगा.
किसी भी संसद के चार कार्य होते हैं- कानून बनाना, सरकार को खर्च करने की अनुमति देना, सरकार के कार्यो की समीक्षा करना और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करना. इनमें से एक भी यह इजाजत नहीं देता कि अगर मुद्दा गंभीर हो तो संसद की कार्यवाही भी रोकी जा सकती है.
शायद नासमझी से हम इस प्रजातांत्रिक संस्था को गलत दिशा में ले जा रहे हैं. हम यह भूल जा रहे है कि विश्व की संसदों की जननी मानी जानेवाली ब्रिटेन की संसद में शायद ही कभी कार्य-बाधित हुआ हो.
1885 से 1947 तक के देश के रहनुमाओं में ‘ब्रितानी प्रजातांत्रिक सिस्टम (वेस्टमिन्स्टर मॉडल) अपनाने की एक अजीब ललक थी. दूसरी ओर अंगरेज लगातार कहते रहे कि भारत में इस तरह की प्रतिनिधि संस्थाएं बुरी तरह असफल रहेंगी. उनका तर्क था कि ब्रिटेन में भी इस तरह की संस्थाएं विकसित करने के पीछे मैग्ना कार्टा से अब तक का 700 साल का इतिहास रहा है.
दो-दो क्रांतियों की वजह से सामाजिक चेतना का स्तर अलग रहा है, प्रजातांत्रिक भावनाओं को आत्मसात करने का अनुभव रहा है. उनका मानना था कि किसी ऐसे समाज में, जिसमें समझ का स्तर बेहद नीचे हो, जिसमें समाज तमाम अतार्किक और शोषणवादी पहचान समूह में बंटा हो और जो पश्चिमी प्रजातंत्र के औपचारिक भाव को न समझ सकता हो, यूरोपीय प्रतिनिधि संस्थाओं को थोपना भारत के लोगों के साथ अन्याय होगा.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भारत में भी संसदीय प्रणाली स्थापित करने की इस मांग पर अपनी प्रतिक्रया में तत्कालीन वायसरॉय लार्ड डफरिन ने कहा ‘यह अज्ञात की खोह में कूदने से अलावा कुछ भी नहीं होगा. ये संस्थाएं बेहद धीमी गति से कई सदियों की तैयारी का नतीजा हैं’.
ब्रिटिश संसद में भारत में लागू किये जानेवाले चुनाव प्रस्ताव पर एक बहस के दौरान 1890 में वाइसकाउंट क्रॉस ने कहा ‘अपने होशो-हवास में रहनेवाला कोई भी व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि इंग्लैंड जैसी संसदीय व्यवस्था भारत में भी होनी चाहिए. भारत तो छोड़िए, किसी भी पूर्वी देश में ऐसी संसदीय प्रणाली निर्थक साबित होगी.’
ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री एजे बेल्फौर ने हाउस ऑफ लॉर्डस में आगाह किया ‘हम सब यह मानते हैं कि पश्चिमी प्रतिनिधि सरकार- एक ऐसी सरकार जो पारस्परिक विचार-विमर्श के आधार पर चलती हो- सर्वश्रेष्ठ है, लेकिन यह तब (संभव है), जब आप एक ऐसे समाज में हैं, जो एकल (होमोजेनियस) हो, जो तथ्यात्मक व भावनात्मक रूप से समान हो, जिसमें बहुसंख्यक अपने अल्पसंख्यकों की भावनाओं का स्वत: और आदतन अंगीकार करे, जिसमें एक-दूसरे की परंपराओं को समभाव से देखने की पद्धति हो और जहां विश्व के प्रति तथा राष्ट्रीयता को लेकर सदृश्यता हो’. वे भारत में बढ़ती हिंदू-मुसलमान वैमनस्यता तथा जाति संस्था के संदर्भ में बोल रहे थे.
इन सभी चेतावनियों को दरकिनार कर, यहां तक कि गांधी के तमाम विरोध के बावजूद, अंगरेजी शिक्षा से ओतप्रोत कुछ संभ्रांत नेताओं ने भारतीय संविधान को बीएन राव सरीखे एक अफसर (जिन्होंने 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनाने में भी अपनी जबरदस्त भूमिका निभायी थी) की देख-रेख में ब्रितानी, अमेरिकी और अन्य यूरोपीय संस्थाओं की नकल करते हुए भारत का संविधान तैयार करवाया.
आज फिर सोचने की जरूरत है कि प्रजातंत्र की वर्तमान टेढ़ी इमारत, जो ऊपर से नीचे लायी गयी है, लेकिन जिसमें नीचे केवल खंभा है, बनायी रखी जाये या फिर जनता की सोच बेहतर करते हुए ग्राम सभा की नींव पर संसद का मंदिर तामीर किया जाये.
प्रजातंत्र की संस्थाओं से कई देशों में मोहभंग हुआ है. 22 जून, 2010 को प्रकाशित ‘गाल-अप’ पोल में पाया गया कि 89 प्रतिशत अमेरिकियों को वहां की संसद में विश्वास नहीं है.
अगर भारत में सांसदों के पैसा लेकर सवाल पूछने के मामले में, आजादी के 68 साल बाद स्वर्ग में महात्मा गांधी को आंसू बहाने को मजबूर कर रहा होगा, तो सवा दो सौ साल बाद बेंजामिन फ्रैंकलिन की आत्मा भी बहुत खुश नहीं होगी.
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