मेमन को दी गयी फांसी से उठे सवाल
रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार जबकि अनेक देशों में फांसी की सजा समाप्त कर दी गयी है, दुनिया के ‘सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश’ भारत में फांसी की सजा कितनी सही है? उसका औचित्य क्या है? मुंबई बम धमाकों के एक प्रमुख व्यक्ति याकूब मेमन को फांसी देने का विरोध एक साथ पूर्व न्यायाधीशों, प्रमुख न्यायविदों, पूर्व गुप्तचर […]
रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार
अभी मैनेजर पांडेय ने बीते 31 जुलाई को जन संस्कृति मंच के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में भारतीय समाज में जिन पांच सत्ताओं-राज्य सत्ता, कॉरपोरेट (पूंजी) सत्ता, जाति सत्ता, धर्म सत्ता और पुरुष सत्ता की बात कही है, उनमें सबसे बड़ी राज्य सत्ता है, जो अन्य चार सत्ताओं के साथ भारतीय समाज को एक खास रूप-रंग में ढालने को उद्धत हैं. यह राज्य सत्ता, धर्म सत्ता को शक्तिशाली बनाती है. ये सभी सत्ताएं आपस में मिल कर लोकतंत्र को कमजोर करती हैं. असहमति के स्वरों को दबाती हैं और कुचलती हैं. 12 मार्च, 1993 को मुंबई में एक साथ हुए 12 स्थानों पर बम हमलों में 257 लोग मारे गये थे और 713 घायल हुए थे. ऐसे जघन्य अपराध और आतंकी हमलों की केवल निंदा ही नहीं की जानी चाहिए, उसके जड़ों की भी पहचान होनी चाहिए, जिसके बिना आतंकवाद समाप्त नहीं हो सकता.
6 दिसंबर, 1992 के बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद दिसंबर 1992 और 1993 में मुंबई और देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. बाबरी ध्वंस किसी हत्या या नरसंहार का परिणाम नहीं था. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुआ सिख-नरसंहार और 2002 में गुजरात नरसंहार हुआ था. इन दोनों नरसंहारों में सरकारें खामोश और निष्क्रिय थीं. राज्य अपनी भूमिका भूल चुका था. उसका स्वरूप बदलने लगा था. अस्सी के दशक के आरंभ में, इंदिरा गांधी के शासन-काल में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्ज लिया गया था. उत्तर आधुनिक काल के एक बड़े चिंतक-विचारक ज्यां बौद्रीया ने प्रतिच्छाया के जरिये काम करनेवाली जिस पूंजी को ‘अनैतिक’ कहा है, भारत कुछ ही समय बाद उस दिशा में चल पड़ा था. बाबरी मसजिद ध्वंस के पहले ‘नयी उदार अर्थनीति’ लागू की गयी थी. एक कड़ी को सर्वथा स्वंतत्र रूप में देखने से, उसे अन्य कड़ियों से न जोड़ने से, आतंकवाद जैसी समस्या के सही कारणों की पड़ताल नहीं हो सकती. आतंकवाद से मुक्ति के लिए, उसे उत्पन्न करनेवाली शक्तियों की पहचान सर्वाधिक जरूरी है.
अस्सी के दशक के पहले भारत में आतंकवादी घटनाएं कितनी हुई थीं? कश्मीर, पूवरेत्तर राज्य, पंजाब अशांत नहीं था, अस्सी के दशक में इसमें गति आयी. बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद यह बढ़ा. मुंबई धमाका ‘मास्टर माइंड’ टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहिम हैं, जिन्हें सरकार अभी छू भी नहीं सकी है. याकूब मेमन ने ‘सरेंडर’ करने का निर्णय लिया और भारत सरकार को मुंबई ब्लास्ट की सूचनाएं दी, जांच में सहयोग किया. उसने सरकार को न ठगा, न धोखा दिया. आत्मसमर्पण किया. उसे फांसी दी गयी. बड़ा सवाल यह है कि मेमन को फांसी देने के बाद अब आत्मसमर्पण से पहले अपराधी सौ बार सोचेगा. राज्य सत्ता में अविश्वास वह बड़ा सवाल है, जिस पर गंभीर विचार के बिना हम समस्या-मुक्त नहीं हो सकते. प्रश्न विश्वास की रक्षा का, राज्य सत्ता के चरित्र और व्यवहार का है. 1984 और 2002 के नरसंहार राज्य सत्ता की भूमिका थी. वहां वह अशक्त थी या कुछ समय के लिए मौन. शशि थरूर ने मेमन की फांसी को ‘सरकार प्रायोजित हत्या’ कहा है. सरकार प्रायोजित संहार, नरसंहार, हत्या हमारे समक्ष सरकार का जो चित्र-चरित्र प्रस्तुत करते हैं, वह किसी लोकतांत्रिक सरकार का नहीं हो सकता. क्या भारतीय लोकतंत्र छद्म और अविश्वसनीय है? दिल्ली में तीन हजार सिखों की हत्या में जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की भूमिका देखी गयी है.
इन दोनों को अभी तक (30 साल बाद) कितनी बड़ी सजा मिली? दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने मेमन को दी गयी फांसी के बाद सवाल खड़े किये हैं. आतंकवादी घटनाओं, हत्याओं से संबंधित सभी केसों में, क्या त्वरित निर्णय लिया गया है? कांग्रेस के शशि थरूर और दिग्विजय सिंह ही नहीं, भाजपा के राम जेठमलानी और शत्रुघ्न सिन्हा भी मेमन की फांसी के खिलाफ क्यों थे? पार्टी के सामने उनकी आत्मा जीवित थी. राज्य सत्ता, राजनीतिक पार्टी और सरकार के प्रति नागरिकों के अविश्वास को गंभीरता से समझने की जरूरत है. अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने याकूब मेमन को ‘ट्रेटर’ (देशद्रोही) कहा. भारत में देशद्रोही कहां और कितने हैं, इसका फैसला कौन करेगा? रॉ के पूर्व अधिकारी वी रमण ने ‘मुंबई ब्लास्ट’ का मुख्य दोषी टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहिम को माना था. वे याकूब मेमन को फांसी देने के पक्ष में नहीं थे. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम सदैव मृत्यदंड के खिलाफ थे. 30 जुलाई को उन्हें सुपुर्द-ए-खाक किया गया और इसी तारीख की सुबह मेमन को फांसी दी गयी. गोपाल कृष्ण गांधी ने मेमन को फांसी न दिये जाने को कलाम के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि कहा था.
राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों के फांसी न देने की असली वजह दक्षिण के राज्यों और पंजाब में इसका विरोध था. जनदबाव था. याकूब मेमन के मामले में यह संभव नहीं था. अब यह याद दिलाया जा रहा है कि सरकार ने श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट का क्या किया? माया कोडनानी, बाबू बजरंगी और दिल्ली में हुए सिख-नरसंहार के दोषियों को फांसी देने की मांगें उठ रही हैं. सरकार और न्यायपालिका की विश्वसनीयता दावं पर लगी हुई है. आतंक के अन्य मामलों में सरकार और न्यायपालिका अधिक तत्पर-सक्रिय नहीं है. ओवैसी और सैयद अली शाह गिलानी के सवाल से हम मुंह मोड़ नहीं सकते कि क्यों केवल मुसलमानों को ही फांसी दी जा रही है? सवाल यह भी है कि अजमेर शरीफ, मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस धमाकों और माया कोडनानी मामले में सरकार और न्यायपालिका क्या कर रही है?
फांसी की सजा समस्या का समाधान नहीं है. राज्य सत्ता, सरकार, न्यायपालिका का दायित्व कहीं अधिक है. उज्जवल निकम को, जिन्होंने अजमल कसाब और याकूब मेमन को फांसी के फंदे तक पहुंचाया, उनको भी जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है. मृत्युदंड से समस्याएं सुलझती नहीं हैं. कई और बड़े सवाल उठ खड़े होते हैं.