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पूर्वोत्तर की शक्ल बदलेगा यह समझौता

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार नागालैंड का शांति समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत अपने रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित कर रहा है. उधर का रास्ता पूर्वोत्तर से होकर गुजरता है, जो देश का सबसे संवेदनशील इलाका है. सब ठीक रहा तो यह समझौता पूरे पूर्वोत्तर की […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
नागालैंड का शांति समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत अपने रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित कर रहा है. उधर का रास्ता पूर्वोत्तर से होकर गुजरता है, जो देश का सबसे संवेदनशील इलाका है.
सब ठीक रहा तो यह समझौता पूरे पूर्वोत्तर की कहानी बदल सकता है. एनएससीएन (आइएम) के साथ समझौते की जिस रूपरेखा पर दस्तखत किये गये हैं, उसकी शर्तो की जानकारी अभी नहीं है. उम्मीद है कि 18 साल के विचार-विमर्श ने इस समझौते की बुनियाद पक्की बना दी होगी.
सरकार ने इस मामले में काफी सावधानी से कदम रखे हैं. समझौते पर दस्तखत से पहले प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मल्लिकाजरुन खड़गे, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शरद पवार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, जे जयललिता, नागालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और दूसरे राजनेताओं के साथ बात की थी. इसलिए समझौते को लेकर आंतरिक राजनीति में विवाद का अंदेशा नहीं है. अलबत्ता इसके पूरी तरह लागू होने से पहले कुछ सवाल जरूर हैं.
पहला सवाल है कि इस समझौते के चार महीने पहले नागालैंड के दूसरे संगठन एनएससीएन (के) ने संघर्ष विराम को तोड़ने की जो घोषणा की थी, क्या उसका कोई असर होगा? एनएससीएन (के) के अलावा नागालैंड पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और दूसरे छोटे-मोटे संगठन भी हैं.
उनकी प्रतिक्रिया का पता नहीं लगा है. क्या एनएससीएन (के) से समझौता टूटना इस समझौते का आधार बना? क्या नागा गुट वृहत्तर नागालैंड की मांग वापस लेने को तैयार हैं?
पूर्वोत्तर में असम, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर और अरुणाचल में अलग-अलग समस्याएं हैं. ये इलाके मुख्यधारा से कटे रहे हैं. यहां के बागी गुटों के साथ समझौतों का लंबा इतिहास है और ज्यादातर समझौते विफल रहे हैं. हां, 1986 का मिजोरम समझौता अब तक का सबसे सफल समझौता रहा.
पूर्वोत्तर के नौजवान नये भारत की मुख्यधारा में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वे भी बदलते भारत के साथ अपने जीवन में बदलाव के सपने देखने लगे हैं. फिर भी इस इलाके में भारतीय राष्ट्र-राज्य की उपस्थिति कमजोर है. तमाम बागी गिरोह यहां अपनी समांतर सरकारें चलाते हैं. व्यापारी, कारोबारी और सरकारी कर्मचारी तक उग्रवादी संगठनों को टैक्स देते हैं.
जून में मणिपुर के चंदेल जिले में भारतीय सैनिकों पर हुए हमले के कारण देश का ध्यान उधर गया था. हमले के कुछ घंटों में दो उग्रवादी संगठनों-उल्फा (आइ) और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (खपलांग) यानी एनएससीएन (के) ने इस हमले की साझा जिम्मेवारी ली थी.
शुरू में लगता था कि इसके पीछे मणिपुर के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और माइती गिरोह कांगलेई यावोल कन्ना लुप (केवाइकेएल) का हाथ है. अंतत: इनके अंब्रेला संगठन युनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेसिया (यूएनएफएलडब्लू) ने जिम्मेवारी ले ली. इस हमले के पहले मई में इस संगठन ने नागालैंड में असम रायफल्स के जवानों पर हमला किया था, जिसमें सात जवान शहीद हुए थे.
यह इस इलाके के कई गिरोहों को मिला कर बना संगठन है, जिसका लक्ष्य इस इलाके में भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों को तोड़ कर ‘पश्चिमी दक्षिण पूर्व एशिया’ नाम से एक नया देश बनाना है. म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भारत-विरोधी गतिविधियों को हवा मिलती है.
भारत सरकार ने बांग्लादेश और म्यांमार के साथ रिश्तों के महत्व को देर से समझा है. म्यांमार को भरोसे में लिये बगैर आसियान देशों के साथ हमारे रिश्ते नहीं बन सकते. अब जब इस इलाके में आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने की बात चल रही है, सहयोग की जरूरत बढ़ गयी है. मणिपुर में सेना पर हमले के बाद भारतीय सेना ने म्यांमार में जो कार्रवाई की, वह इसी सहयोग के कारण संभव हो पायी थी.
म्यांमार की भारत से लगी पश्चिमी सीमा पर दर्जनों उग्रवादी संगठन खड़े हैं. पूर्वोत्तर की लगभग 5,000 किमी की सीमा बांग्लादेश, म्यांमार, चीन, नेपाल और भूटान की सीमाओं से जुड़ी है.
यह इलाका शेष भारत के साथ 22 किमी चौड़े एक कॉरिडोर से जुड़ा है, जो ‘चिकन नेक’ या फिर ‘सिलीगुड़ी नेक’ के नाम से जाना जाता है. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी से इस क्षेत्र को भारतीय मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिशें हो रहीं हैं, पर इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिली है. क्योंकि आज भी पूर्वोत्तर को जोड़नेवाली न तो अच्छी सड़कें हैं और न रेल लाइनें.
‘लुक इस्ट पॉलिसी’ तब तक निर्थक है, जब तक इस इलाके को मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जायेगा. इस लिहाज से नागालैंड का यह समझौता बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकता है. पर क्या टी मुइवा और इसाक चिशी स्वू का इतना प्रभाव है कि वे इस इलाके को मुख्यधारा से जोड़ सकें?
हमें नागा नेतृत्व के अंतर्विरोधों को भी समझना होगा. यह भी कि एसएस खपलांग के गुट ने मार्च में अपना युद्ध विराम समझौता क्यों तोड़ा. क्या मुइवा गुट का रुख पहले से नरम हुआ है? खपलांग गुट पहले इनके साथ ही था. इनके मतभेदों का कारण क्या है?
नागा गुटबाजी से ज्यादा इस फैसले का राजनयिक महत्व है. भारत चीन और आसियान देशों के साथ अपने रिश्ते को पुनर्परिभाषित कर रहा है. रिश्ते बढ़ाने के लिए रास्ते बनाने होंगे, जो इस इलाके से होकर गुजरेंगे.
इस साल जून में खबर आयी थी कि चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से शुरू करने के अपने प्रयासों के तहत कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाइ स्पीड रेल लाइन बिछाने की इच्छा जतायी है. कुनमिंग में ग्रेटर मीकांग सब-रीजन (जीएमएस) सम्मेलन में इस प्रस्ताव पर चर्चा की गयी, जिसमें बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआइएम) मल्टी-मोडल गलियारे को प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया.
पिछले साल नवंबर में म्यांमार में हुए आसियान शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने ‘लुक इस्ट’ के बजाय ‘एक्ट इस्ट’ नीति पर चलने की घोषणा की थी. इस लिहाज से आनेवाले समय में यह इलाका आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनेगा. इस समझौते को मोदी की उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.
इसकी घोषणा करते समय गृहमंत्री भी उपस्थित थे, पर स्पष्ट है कि इसमें पीएमओ और उनके सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की मुख्य भूमिका रही. अभी तक विदेशी मामलों में ही प्रधानमंत्री सीधे फैसले कर रहे थे. ऐसी कुछ और बातों ने ध्यान खींचा है. यह ठीक से लागू हो जाये तब बात है.

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