पाश्चात्य संस्कृति के गुलाम हैं हम
एक बार फिर 15 अगस्त आनेवाला है. भारत की जनता पुन: औपचारिकता के रूप में देशभक्ति वाले गाने बजा कर तिरंगा फहरायेगी. हमारे लिए आजादी का यही मतलब रह गया है. कहने को तो 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, परंतु मानसिक रूप से आज भी हम अंगरेजीयत के गुलाम हैं. इतिहास साक्षी है […]
एक बार फिर 15 अगस्त आनेवाला है. भारत की जनता पुन: औपचारिकता के रूप में देशभक्ति वाले गाने बजा कर तिरंगा फहरायेगी. हमारे लिए आजादी का यही मतलब रह गया है. कहने को तो 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, परंतु मानसिक रूप से आज भी हम अंगरेजीयत के गुलाम हैं.
इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई देश किसी दूसरे देश की दासता से स्वतंत्र होता है, तो सबसे पहले गुलामी की मुख्य निशानियों जैसे विदेशी भाषा, शिक्षा और संस्कृति का नामोनिशान मिटाता है, लेकिन अपनी गुलामी की निशानियों को मिटाना तो दूर भारत उल्टा उन्हें संजो कर रखे हुए है. हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है. अंगरेजी हम बड़े शान से बोलते हैं.
हमें अपने वेदों, उपनिषदों की संख्या तक पता नहीं और यहां तक कि संस्कृत के किसी वाक्य का सही उच्चरण तक नहीं कर सकते, लेकिन अंगरेजी स्कूलों में पढ़े बिना हम खुद को शिक्षित समझते नहीं हैं. संस्कार तो आज हमारे लिए मजाक का विषय बन गया है. त्याग, सेवा, अनुशासन, पवित्रता आदि विचार जो भारतीय संस्कृति के आधार हैं, आज सिर्फ शब्द ही बन कर रह गये हैं. व्यावहारिक जीवन में तो इनका कोई मायने ही नहीं रह गया है.
इन्हीं सबको देख कर हमें यह आभास होता है कि क्या हम सही मायने में आजाद हुए हैं या फिर वही गुलामी का जीवन जी रहे हैं? जब हम शिक्षा अंगरेजी माध्यम से ही लेना चाहते हैं, तो कैसे कह सकते हैं कि हम अंगरेजों से आजादी प्राप्त कर चुके हैं.
गांधी जी ने कहा था कि अगर अंगरेज चले जाते हैं और अंगरेजीयत छोड़ जाते हैं, तो हम आजाद नहीं हैं. इसीलिए हमें एक बार सोचना चाहिए कि क्या हम सचमुच आजाद हो गये हैं? आज हम अंगरेजों के नहीं, पाश्चात्य संस्कृति के गुलाम हो कर रह गये हैं.
नीतेश कुमार महतो, सरायकेला